राष्ट्रपिता कौन ?
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“आप किसी भी राष्ट्र का निर्माण नफरत और साम्प्रदायिकता की नींव पर नहीं कर सकते।” मुख्यधारा में तो नहीं पर इसके संलग्न में ही ऐसी कोशिश हो रही हैं जो गाँधी की महात्मा और राष्ट्रपिता वाली छवि पर निरंतर हमलावर हैं। मानो महात्मा गाँधी ने देश को आजादी दिलाकर कोई अपराध किया हो। निश्चित ही ऐसे लोग भरमाये और ब्रैनवॉश का शिकार हुए लोग हैं जिनको पिंजरे के तोते सरीखा रटा दिया गया है- गोडसे इज ग्रेट नॉट गाँधी।
भारत का पब्लिक स्पेस बदल चुका है। इसमें नाथूराम गोडसे की जबरदस्त वापसी हुई है। गोडसे भारत के आपराधिक इतिहास का पहला ऐसा हत्यारा है ,जो एक विचारधारा की सतह के नीचे अनौपचारिक रूप से स्थापित रहा है। आज वही विचारधारा भारत के सामाजिक ढाँचे पर हावी है और गोडसे भारत में हीरो की तरह वापसी कर रहा है। उसके आस पास और उससे जुड़े लोगों का महिमामंडन किया जा रहा है। सावरकर को भारत रत्न देने की बात ऐसे ही नहीं होती इसीलिए होती है क्योंकि सावरकर की बात होने से गोडसे की भी बात होने लगती है।
ध्यान देने योग्य बात ये है कि इन्ही सब लोगों में से कुछ हमारे आस पास ही हैं जो गाँधी जयंती पर झाड़ू लगाने की औपचारिकता करते हुए तश्वीर खिंचाते हैं। हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि गोडसे हाशिये पर ही रखा जाने के काबिल है। आज ये मुख्यधारा का भाग है और बहुत से ऐसे मुद्दों में इसको जोड़कर बहुसंख्यकों की भावनाओं को नया उन्माद दिया जाता है। इसे भी झुठलाया नहीं जा सकता कि गाँधी ने हरेक भारतीय की स्वतंत्रता की लिए संघर्ष किया था।
मुख्यधारा की कई परतें होती हैं- खुद पहचानना पड़ता है कि ऊपरी परत के निचली परत से कितने घनिष्ठ संबंध हैं। निचली सतह वाले लोग जो गाँधी की हत्या को सही ठहराने वाली सामग्री -पर्चे, पोस्टर मीम आदि बाँटते हैं। ऐसे लोग जिनमें युवा भी बढ़ चढ़कर भाग ले रहे हैं वो गाँधी की तश्वीर पर गाली लिखकर भेजते हैं ताकि विरोधी को जबाब दे सकें। ये लोग गाँधी के पुतले को गोली मारते हैं। ये लोग खुद को उस विचारधारा का हिस्सा मानते हैं जिसका प्रभुत्व आज भारत की सत्ता के गलियारों में है। यही मुख्यधारा की ऊपरी और मुख्य सतह है।
इन लोगों के नेता औपचारिक रूप से कभी भी किसी मंच पर गाँधी का विरोध नहीं करते है न ही ये बड़े नेता गोडसे को औपचारिक रूप से अपना नेता /आदर्श स्वीकारते हैं। इन नेताओं के समर्थकों के बीच गोडसे की मौजूदगी, गहरी पड़ताल की माँग करती है। गोडसे को याद करने के बहाने गाँधी ही हत्या का सरलीकरण किया जा रहा है।
गाँधी की हत्या एक विचारधारा की हत्या थी। 30 जनवरी 1948 को जब गाँधी की हत्या हुई तो एक संगठन जिसका आज बोलबाला है, की छवि खराब हुई। लोग उसके खिलाफ हो गए कोई उसके साथ नहीं आया। वक्त बदला और गोडसे के इस अपराध को सही ठहराने वाले लोग बेझिझक बाहर आने लगे हैं। उनके सिर पर किसका हाथ है ,ये समझाने की जरूरत नहीं। भोपाल की सांसद गोडसे को देशभक्त बताती हैं किन्तु जनता उन्हें फिर से सांसद बना देती है। दरअसल भोपाल की सांसद की जुबान नहीं फिसली थी बल्कि वो जनतांत्रिक व्यवस्था धड़ाम हो गयी थी जिसके लिए कहा जाता है कि भारत के हर नागरिक में संविधान बसता है।
कुछ समय पहले अमेरिकी राष्ट्रपति भारत के दौरे पर आए। भाषण में बोलने लगे कि देश के वर्तमान प्रधानमंत्री को राष्ट्रपिता बना देना चाहिए। मुख्यधारा में इस विषय की घोर निंदा के वजाय तारीफ हुई। एक बड़बोला विदेशी आकर राष्ट्रपिता का अपमान करता है और सभी पुरोधा चुप थे।किन्तु जब गाँधी के हत्यारे को देशभक्त बताने वाले सांसद बन सकते हैं तो भला देश का प्रधानमंत्री,राष्ट्रपिता क्यों नहीं बन सकता? भारत के सामाजिक परिवेश ने पहली बार किसी ऐसी विचारधारा की चादर ओढ़ी है कि संभव है राष्ट्रपिता को ही बदल दिया जाये। जिस तरह बॉलीवुड की फिल्मों में अस्पतालों में बच्चा बदला जाता था ठीक उसी तरह राजनीतिक परिवेश में राष्ट्रपिता बदले जा रहे हैं।
सावरकर, जिनको कपूर कमिशन की रिपोर्ट में गाँधी की हत्या से जुड़ा पाया जाता है। उनकी तश्वीर राजभवन में लगायी जाती है। वो भी ठीक गाँधी के सामने। किस भावना से ऐसा किया गया? ऐसा करके क्या दर्शाने की कोशिश की गयी? ये बहस का विषय बन गया, ये जानते हुए भी कि महात्मा गाँधी के सामानांतर एक व्यक्तित्व को खड़ा करके न केवल महात्मा बल्कि महात्मा की तपस्या और भारत के नागरिक में बसी महात्मा के लिए इज्जत को औपचारिक तौर पे चुनौती दी गयी है। हर स्वतंत्रता सैनानी का पृथक और अद्वितीय योगदान भारत को मिला,तो क्या आज हम इतने महान हो गए कि उन सबके मध्य तुलना कर रहे हैं?
एक राजनैतिक व्यक्तित्व कहते हैं कि गोडसे की पिस्तौल को नीलामी में रखा जाये, कीमत बता देगी कि देशभक्त था या देशद्रोही। उस व्यक्ति को ये जानना चाहिए कि गाँधी की लाठी कोई कीमत नहीं है। जीवन भर उस लाठी का सहारा लेकर गाँधी चले पर किसी और के ऊपर लाठी को नहीं चलाया इसलिए वो लाठी अमूल्य है। अगर आज के भारत में गाँधी को ढूँढा जाये तो एक तरफ आपको प्रधानमंत्री की चरखा कातते तश्वीर मिलेगी, कनॉट प्लेस में बड़ा स्टील का चरखा मिलेगा तो दूसरी और आपको वो मानसिकता भी मिलेगी जो गाँधीवादी विचारों का पुरजोर विरोध करती है। इन सब में वो राष्ट्रपिता गाँधी का सम्मान कहाँ हैं?
कुछ एक मेरे सहपाठी बहस करते हैं कि महात्मा ने देश के लिए किया ही क्या है? पर जब उनसे पूछा जाता है कि गोडसे ने आजादी के लिए क्या किया है, उनकी सक्रीय भागीदारी कहाँ थी तो मुँह पे ताला जड़ जाता है। मैं प्रारम्भ में कह चुका हूँ कि ये लोग भरमाये गए हैं। आज चंद लोग ऐसा बोल रहे हैं हो सकता है कल कुछ और बोलेंगे।
यही सब हो रहा है देश में कम से कम छोटे स्तर पर ही सही, पर हो रहा है। इसी कारण मुझे लेख के प्रारम्भ में भूमिका बनानी पड़ी। हमारी गलती यह हुई है कि हम लोगों ने आज तक कभी भी राष्ट्रपिता की छवि के पक्ष में खुलकर नहीं बोला। इतना जरूर कह सकता हूँ कि जिन्होंने थोड़ा भी गाँधी के बारे में पढ़ा है वो जानते हैं कि गाँधी ने खुद सारा जीवन संघर्ष में तपाया तब कहीं जाकर हम आज का भारत देख पा रहे हैं। इस भारत की पहचान गाँधी और उनकी विचारधारा से है न कि किसी विशेष समुदाय से।"मैंने देश के लिए क्या किया है" इस कथन का उत्तर जिस दिन आप दे पाएँगे उस दिन आप अंदाज़ा लगा पाएँगे कि राष्ट्रपिता बनने लिए क्या क्या करना पड़ता है। सत्यमेव जयते।
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