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Showing posts from January, 2021

नदी बोली समन्दर से | Kunwar Bechain

नदी बोली समन्दर से, मैं तेरे पास आई हूँ। मुझे भी गा मेरे शायर, मैं तेरी ही रुबाई हूँ।। मुझे ऊँचाइयों का वो अकेलापन नहीं भाया लहर होते हुये भी तो मेरा मन न लहराया मुझे बाँधे रही ठंडे बरफ की रेशमी काया। बड़ी मुश्किल से बन निर्झर, उतर पाई मैं धरती पर छुपा कर रख मुझे सागर, पसीने की कमाई हूँ।। मुझे पत्थर कभी घाटियों के प्यार ने रोका कभी कलियों कभी फूलों भरे त्यौहार ने रोका मुझे कर्तव्य से ज़्यादा किसी अधिकार ने रोका। मगर मैं रुक नहीं पाई, मैं तेरे घर चली आई मैं धड़कन हूँ मैं अँगड़ाई, तेरे दिल में समाई हूँ।। पहन कर चाँद की नथनी, सितारों से भरा आँचल नये जल की नई बूँदें, नये घुँघरू नई पायल नया झूमर नई टिकुली, नई बिंदिया नया काजल। पहन आई मैं हर गहना, कि तेरे साथ ही रहना लहर की चूड़ियाँ पहना, मैं पानी की कलाई हूँ। --कुँवर बेचैन  

72th Republic Day

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जिनकी कुर्बत माँ भारती के श्रृंगारों से कम नहीं  याद उन वीरों की खुदा की वंदगी से कम नहीं  जंग में जो दुश्मनों को मारकर हासिल हुई  वो शहादत भी यक़ीनन जिंदगी से कम नहीं   बर्फ का ओढ़े कफ़न जो चढ़ रहे हैं चोटियाँ  उनकी ये हिम्मत किसी दीवानगी से काम नहीं  अपने बेटों को जो हँस कर भेज देती जंग में  ऐसी माई पन्ना और दुर्गावती से काम नहीं  जान देकर जो बचाते हैं वतन की आबरू  उनकी विधवानी किसी देवी सती नहीं है पढ़ा इतिहास अपना और पढ़ा भूगोल भी  फिर भी हमसे जंग लड़ना खुदखुशी से कम नहीं  केवल एटम तक नहीं अपने इरादे जान लो   दुनिया वालों देख लेना हम किसी से कम नहीं  

मानुष इस कलयुग में कब तक मुझको साफ़ करेंगे

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अरे भैया ओ  माता मुझको तो अब माफ़ करो  मेरी गंदगी मुझपे छोड़ो कुछ अपनी भी साफ करो  मानुष इस कलयुग में कब तक मुझको साफ़ करेंगे  राजनीति में मैं ही शेष हूँ अब सब मेरा जाप करेंगे  हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई झगड़ों में जान नहीं है  जात पात के कौम कबीलों में उनका का मान नहीं है  मैं ही बची हूँ वोटबैंक मेरा ही सब प्रलाप करेंगे  मानुष इस कलयुग में कब तक मुझको साफ़ करेंगे भवसागर तारणी मैं गंगा इन सब को तार रही हूँ   गंगा जमना तहज़ीबों की भारत में तू रसधार रही हूँ   मेरे जल में बहने वाला कल भी नेता बन जाता है  मेरी  साफ़ सफाई करने वाला नेता ही मुझको खाता है  आडम्बर में नेता नित अपने क्रिया और कलाप करेंगे  मानुष इस कलयुग में कब तक मुझको साफ़ करेंगे मेरी छाती में नौकाओं के दल क्रीड़ा खेल रहे हैं  गंगा तट पर सभी तामसी मांस मदिरा पेल रहे हैं  नाना आखेटों से धाराएँ घिरी दिखाई पड़ी हैं  गंगाजल बेचनेवालों से चिरी दिखाई पड़ी है  ये सारे मेरी महिमा धीरे-धीरे हाफ करेंगे  मानुष इस कलयुग में कब तक मुझको साफ़ करेंगे मेरे नाम से संस्थाएँ घाटों पे चंदा काट रही हैं  साधू माई और पंडों की पीढ़ी धंधा पाट रही हैं  पत्र फूल धूली ह

सूनेपन से लड़ते हैं अब अधरों के गीत

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सूनेपन से लड़ते हैं अब अधरों के गीत  चारदीवारी भीतर कैद विहग लगता है  पर उड़ने को आतुर तपी सजग जगता है  दूर बहुत ही बसते अब शहरों के मीत  सूनेपन से लड़ते हैं अब अधरों के गीत जाल बुने जो मकड़ी और उसी में उलझे  कैसे ? क्यों कर? कितने? प्रश्न रहे अनसुलझे  सात सुरों की देखी ये बहरों से प्रीत  सूनेपन से लड़ते हैं अब अधरों के गीत अंतिम सच जीवन का सब अपनों से हारे  प्राण पराये दुखते ह्रदय हुआ है भारी  सत्य टंगे सूली पर ठगरों के सिर जीत  सूनेपन से लड़ते हैं अब अधरों के गीत सूनेपन से लड़ते हैं अब अधरों के गीत 

नम से जज्बात कुछ मचलते हैं ....

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नम से जज्बात कुछ मचलते हैं  जब तेरी याद में तड़पते हैं  दिल लगाने की भूल कर बैठे  हिज्र की आग में सुलगते हैं  क्या भला अब करें यकीं वो तो  मौसमों की तरह बदलते हैं  जो दिए थे गुलाब उल्फत में  बनके काँटे हजार चुभते हैं  थक गए सब चराग जल जल के रात भर हम वहीं सुलगते हैं   टूट कर शाख से गिरे अब जो  आज कल हम कहाँ महकते हैं  बेखुदी में नहीं खबर कुछ भी  गर्द शोरों में भी ढलते हैं  नम से जज्बात कुछ मचलते हैं  जब तेरी याद में तड़पते हैं 

बात...

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तेरे मेरे लव की बात  कैसे बन गयी सब की बात।  मैंने चाहा तब की बात  वरना तुमने कब की बात।  याद उसे, बस आज का दिन है  भूल गए वो तब की बात।  छीन के मुझसे सारी दुनिया  पूछे वो, ये कब की बात।  फिर पंचायत बैठ गयी है  होगी फिर से 'मन की बात'। अपनापन भी खो बैठोगे  छोड़ो अब मज़हब की बात।   तेरे मेरे लव की बात  कैसे बन गयी सब की बात।

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छुक छुक छुक छुक रेल चली है जीवन की || chhuk chhuk rail chali hai jeevan ki