नदी बोली समन्दर से, मैं तेरे पास आई हूँ। मुझे भी गा मेरे शायर, मैं तेरी ही रुबाई हूँ।। मुझे ऊँचाइयों का वो अकेलापन नहीं भाया लहर होते हुये भी तो मेरा मन न लहराया मुझे बाँधे रही ठंडे बरफ की रेशमी काया। बड़ी मुश्किल से बन निर्झर, उतर पाई मैं धरती पर छुपा कर रख मुझे सागर, पसीने की कमाई हूँ।। मुझे पत्थर कभी घाटियों के प्यार ने रोका कभी कलियों कभी फूलों भरे त्यौहार ने रोका मुझे कर्तव्य से ज़्यादा किसी अधिकार ने रोका। मगर मैं रुक नहीं पाई, मैं तेरे घर चली आई मैं धड़कन हूँ मैं अँगड़ाई, तेरे दिल में समाई हूँ।। पहन कर चाँद की नथनी, सितारों से भरा आँचल नये जल की नई बूँदें, नये घुँघरू नई पायल नया झूमर नई टिकुली, नई बिंदिया नया काजल। पहन आई मैं हर गहना, कि तेरे साथ ही रहना लहर की चूड़ियाँ पहना, मैं पानी की कलाई हूँ। --कुँवर बेचैन
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हर हर गंगे.......
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Manish Mahawar
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देवनदी गंगा के विषय में भारत के प्रत्येक जनमानस को जानकारी है। माता गंगा का पृथ्वी पर अवतरण कैसे हुआ, इससे जुडी कथाएँ सब जानते हैं किन्तु बड़े विद्वानों और हमारे पूर्वजों ने माता गंगा विषय में क्या कहा है, गंगा स्तुति, रामचरितमानस में गोस्वामी जी ने माता गंगा को किस तरह वर्णित किया है,संत कबीर के विचार आदि से आपको अवगत कराने के लिए यह लेख प्रस्तुत है।
गोस्वामी तुलसीदास के विचार:
गोस्वामी जी ने गंगा विषय में बहुत विस्तार में लिखा है, शब्दों की अपनी सीमा है। गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित छंद अनुवाद सहित।
माँ गंगा स्तुति:
गोस्वामी जी की प्रसिद्ध रचना विनयपत्रिका में अंकित यह एक अद्भुद रचना है। कहने को एक छंद भर है किन्तु माता गंगा की संपूर्ण महिमा के सागर को गागर में भरता प्रतीत होता है।
जय जय भगीरथ नन्दिनि, मुनि-चय चकोर-चन्दनि,
नर-नाग-बिबुध-बन्दिनि जय जहनु बालिका।
बिस्नु-पद-सरोजजासि, ईस-सीसपर बिभासि,
त्रिपथ गासि, पुन्रूरासि, पाप-छालिका।1।
बिमल बिपुल बहसि बारि, सीतल त्रयताप-हारि,
भँवर बर, बिभंगतर तरंग-मालिका।
पुरजन पूजोपहार, सोभित ससि धवलधार,
भंजन भव-भार, भक्ति-कल्पथालिका।2।
थ्नज तटबासी बिहंग, जल-थल-चर पसु-पतंग,
कीट,जटिल तापस सब सरिस पालिका।
तुलसी तव तीर तीर सुमिरत रघुवंस-बीर,
बिचरत मति देहि मोह-महिष-कालिका।3।
(पंडित छन्नूलाल मिश्र द्वारा गायी गंगा स्तुति सुनें)
हिंदी अनुवाद:गोस्वामी जी कहते हैं- हे भगीरथ की पुत्री आपकी जय हो। आपका रूप चन्द्रमा की चकोर यानी किरण की भाँति है। सभी संत, मुनि,नर, नाग आपकी वंदना करते हैं। हे ऋषि जहनु पुत्री आपकी जय हो।
आपकी जय हो। आप विष्णु के पगों के नीचे विराजमान कमल से उत्पन्न हुईं और भगवान शिव के शीश पर विराजमान हुईं हैं। यहाँ से आप पृथ्वी, स्वर्ग, पाताल की तरफ तीन धाराओं में प्रवाहित होती हैं। आप पुण्य और पाप कर्मों के भण्डार के समान हैं अर्थात आपके जल में पाप, पुण्यों धुलकर समाप्त जाते हैं और मोक्ष की प्राप्ति होती है।
आपका जल बहुत स्वच्छ, निर्मल है। इसकी शीतलता इतनी अधिक है कि तीनो ताप नष्ट हो जाते हैं। आपकी ये निर्मल धारा मोतियों की माला सी प्रतीत होती है।
आपकी श्वेत धारा चन्द्रमा जैसी है। आपको हमारे पूर्वजों ने मानो उपहार स्वरुप प्राप्त किया है। आपका प्रचंड वेग सांसारिक चक्रों को मिटाता है और भक्ति के कल्पवृक्ष की रक्षा करता है।
हे माँ आप आपने जल में रहने वाले सभी पशु पक्षियों, जीवों, पंखों,तटों, कीटों आदि को समान रूप पोषित करती हैं, कोई भेद नहीं करती हैं।
हे माँ आप महिषासुर का नाश करने वाली माँ कलिका के जैसी हो। मुझे ऐसा प्रसाद दीजिये जिससे कि मैं हमेशा राम का ध्यान करते हुए आपके तटों में विचरण कर सकूँ।
रामचरितमानस में गंगा का वर्णन:
रामचरितमानस के अयोध्या कांड में भी तुलसी ने गंगा का मनुहारी वर्णन किया है।
सीता सचिव सहित दोउ भाई। सृंगबेरपुर पहुँचे जाई।।
उतरे राम देवसरि देखी। कीन्ह दंडवत हरषु बिसेषी।।
लखन सचिवँ सियँ किए प्रनामा। सबहि सहित सुखु पायउ रामा।।
गंग सकल मुद मंगल मूला। सब सुख करनि हरनि सब सूला।।
कहि कहि कोटिक कथा प्रसंगा। रामु बिलोकहिं गंग तरंगा।।
सचिवहि अनुजहि प्रियहि सुनाई। बिबुध नदी महिमा अधिकाई।।
सुमिरत जाहि मिटइ श्रम भारू। तेहि श्रम यह लौकिक ब्यवहारू।।
हिंदी अनुवाद:सीताजी और मंत्री सहितदोनों भाई श्रृंगवेरपुर जा पहुँचे।वहाँ गंगाजी को देखकर श्री रामजी रथ से उतर पड़े और बड़े हर्ष के साथ उन्होंने दण्डवत की।
लक्ष्मणजी, सुमंत्र और सीताजी ने भी प्रणाम किया। सबके साथ श्री रामचन्द्रजी ने सुख पाया। गंगाजी समस्त आनंद-मंगलों की मूल हैं। वे सब सुखों को करने वाली और सब पीड़ाओं को हरने वाली हैं।
अनेक कथा प्रसंग कहते हुए श्री रामजी गंगाजी की तरंगों को देख रहे हैं। उन्होंने मंत्री को, छोटे भाई लक्ष्मणजी को और प्रिया सीताजी को देवनदी गंगाजी की बड़ी महिमा सुनाई।
इसके बाद सबने स्नान किया, जिससे मार्ग का सारा श्रम (थकावट) दूर हो गया और पवित्र जल पीते ही मन प्रसन्न हो गया। जिनके स्मरण मात्र से (बार-बार जन्म ने और मरने का) महान श्रम मिट जाता है, उनको 'श्रम' होना- यह केवल लौकिक व्यवहार (नरलीला) है।
देवनदी कहं जो जन जान किए मनसा, कुल कोटि उधारे
देखि चले झगरैं सुरनारि, सुरेस बनाइ बिमान संवारे
पूजा को साजु बिरंचि रचैं तुलसी, जो महातम जान निहारे
ओक की नींव परी हरि लोक, बिलोकत गंग! तरंग तिहारे।
हिंदी अनुवाद: तुलसीदास ने माता गंगा की विशिष्टता का वर्णन करते हुए लिखा कि यदि मनुष्य गंगा में जाकर स्नान करने का विचार मात्र कर ले, तो उसकी करोड़ों पीढ़ियों का उद्धार हो जाता है। गंगा की तरंगों के दर्शन मात्र से ही मनुष्य के विष्णु-लोक में निवास करने की नींव पड़ जाती है।
कवि केशव के विचार:
तुलसीदास के करीब-करीब तीन सौ साल बाद प्रसिद्ध कवि केशव कहते हैं-
नाम लिए कितने तर जात, प्रणाम किए सुर लोक सिधारे
तीर गए तो तरे कितने, कितने तर जात तरंग निहारे
तरंगिनी तेरा है स्वभाव यही, कवि केशव के उर में पनधारे
हे भागीरथी हम दोष भरे पै भरोस यही कि परोस तिहारे।
हिंदी अनुवाद: गंगा का नाम स्मरण करने मात्र से मुक्ति मिल जाती है। जिसने तट पर जाकर इन्हें प्रणाम कर लिया, वह देवलोक में निवास का अधिकारी हो जाता है। केशव गंगा के स्वभाव का वर्णन करते हुए कहते हैं कि गंगा सार्वभौमिक मां है। आपकी लहरों के दर्शन मात्र से मोक्ष मिल जाता है। हे माँ आप मेरे ह्रदय में वास करती हैं। माना की हम दोषपूर्ण और पापी हैं परन्तु हमको तो इस बात से ही संतुष्टि मिल जाती है कि हम आपके पड़ोस में रहते हैं। अर्थात जब हमको आपका सानिध्य प्राप्त है तो हम पापी कहाँ रहे।
निर्जला शुष्क सी धरती पर मानवता जब कुम्भलाती है जब घटाटोप अंधियारे में स्वातन्त्र्य घडी अकुलाती है जब नागफनी को पारिजात के सदृश बताया जाता है जब मानव को दानव होने का बोध कराया जाता है जब सिंघनाद की जगह शृगालों की आवाजें आती हैं जब कौओं के आदेशों पर कोयलें बाध्य हो गाती हैं जब अनाचार की परछाई सुविचार घटाने लगती है जब कायरता बनके मिशाल मन को तड़पने लगती है तब धर्म युद्ध के लिए हमेशा शस्त्र उठाना पड़ता है देवी हो अथवा देव रूप धरती पर आना पड़ता है। हर कोना भरा वीरता से इस भारत की अँगनाई का बलिदान रहेगा सदा अमर मर्दानी लक्ष्मीबाई का। गोरों की सत्ता के आगे वीरों के जब थे झुके भाल झांसी पर संकट आया तो जग उठी शौर्य की महाज्वाल अबला कहता था विश्व जिसे जब पहली बार सबल देखी भारत क्या पूरी दुनिया ने नारी की शक्ति प्रबल देखी फिर ले कृपाण संकल्प किया निज धरा नहीं बँटने दूँगी मेरा शीश भले कट जाये पर अस्तित्व नहीं घटने दूँगी । पति परम धाम को चले गए मैं हिम्मत कैसे हारूंगी मर जाऊँगी समरांगण में या फिर गोरों को मारूँगी। त्यागे श्रृंगार अवस्था के रण के आभूषण धार लिए जिन हाथों में कंगन खनके उन हाथों में ...
( पूरी कविता सुनें ) राष्ट्र भक्ति का दीप जलाना सबको अच्छा लगता है जन गण मन का गीत सुहाना सबको अच्छा लगता है जननी जन्मभूमि प्राणों से बढ़कर प्यारी होती है देशवासियों की खातिर सुरभित फुवारी होती है फिर प्रश्न खड़े होते हैं जगह जगह विस्फोटों से माँ तेरी संतानों को कैसी लाचारी होती है जब स्वदेश का बच्चा बच्चा वन्दे मातरम गायेगा कोई भी आतंकी कैसे उग्रवाद अपनाएगा अपना पूज्य तिरंगा नभ में फहर फहर फरायेगा जो इसकी तौहीन करेगा मिट्टी में मिल जायेगा। आओ करें प्रतिज्ञा हम सब गौरवशाली भाषा में क्यों जिन्दा हैं सिर्फ तिजोरी भरने की अभिलाषा में क्यों अपने मन में औरों की खातिर पीर नहीं होती एक सरीखी दुनिया में सबकी तकदीर नहीं होती अरे मौत के सौदागर ओ नीच अधम हत्यारे सुन मरने के जो संग चले ऐसी जागीर नहीं होती अगर निरीह प्राणियों पर भी दया नहीं दिखलायेगा धरती माता के दमन में गहरे दाग लगाएगा है इतिहास गवाह कसम से रोयेगा पछतायेगा जो इसकी तौहीन करेगा मिट्टी में मिल जायेगा। सुप्त मानसिकताएँ आओ मिलकर उन्हें जगाएँ हम देशप्रेम की अविरल धारा को मिलकर अपनाएँ हम खुरापात जिनके मन में है ...
नदी बोली समन्दर से, मैं तेरे पास आई हूँ। मुझे भी गा मेरे शायर, मैं तेरी ही रुबाई हूँ।। मुझे ऊँचाइयों का वो अकेलापन नहीं भाया लहर होते हुये भी तो मेरा मन न लहराया मुझे बाँधे रही ठंडे बरफ की रेशमी काया। बड़ी मुश्किल से बन निर्झर, उतर पाई मैं धरती पर छुपा कर रख मुझे सागर, पसीने की कमाई हूँ।। मुझे पत्थर कभी घाटियों के प्यार ने रोका कभी कलियों कभी फूलों भरे त्यौहार ने रोका मुझे कर्तव्य से ज़्यादा किसी अधिकार ने रोका। मगर मैं रुक नहीं पाई, मैं तेरे घर चली आई मैं धड़कन हूँ मैं अँगड़ाई, तेरे दिल में समाई हूँ।। पहन कर चाँद की नथनी, सितारों से भरा आँचल नये जल की नई बूँदें, नये घुँघरू नई पायल नया झूमर नई टिकुली, नई बिंदिया नया काजल। पहन आई मैं हर गहना, कि तेरे साथ ही रहना लहर की चूड़ियाँ पहना, मैं पानी की कलाई हूँ। --कुँवर बेचैन
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