नदी बोली समन्दर से | Kunwar Bechain

नदी बोली समन्दर से, मैं तेरे पास आई हूँ। मुझे भी गा मेरे शायर, मैं तेरी ही रुबाई हूँ।। मुझे ऊँचाइयों का वो अकेलापन नहीं भाया लहर होते हुये भी तो मेरा मन न लहराया मुझे बाँधे रही ठंडे बरफ की रेशमी काया। बड़ी मुश्किल से बन निर्झर, उतर पाई मैं धरती पर छुपा कर रख मुझे सागर, पसीने की कमाई हूँ।। मुझे पत्थर कभी घाटियों के प्यार ने रोका कभी कलियों कभी फूलों भरे त्यौहार ने रोका मुझे कर्तव्य से ज़्यादा किसी अधिकार ने रोका। मगर मैं रुक नहीं पाई, मैं तेरे घर चली आई मैं धड़कन हूँ मैं अँगड़ाई, तेरे दिल में समाई हूँ।। पहन कर चाँद की नथनी, सितारों से भरा आँचल नये जल की नई बूँदें, नये घुँघरू नई पायल नया झूमर नई टिकुली, नई बिंदिया नया काजल। पहन आई मैं हर गहना, कि तेरे साथ ही रहना लहर की चूड़ियाँ पहना, मैं पानी की कलाई हूँ। --कुँवर बेचैन  

बलिदान रहेगा सदा अमर मर्दानी लक्ष्मीबाई का || कविता तिवारी की कविता झांसी की रानी || Kavita Tiwari poem on Jhansi Ki Rani lyrics


निर्जला शुष्क सी धरती पर मानवता जब कुम्भलाती है
जब घटाटोप अंधियारे में स्वातन्त्र्य घडी अकुलाती है
जब नागफनी को पारिजात के सदृश बताया जाता है
जब मानव को दानव होने का बोध कराया जाता है
जब सिंघनाद की जगह शृगालों की आवाजें आती हैं
जब कौओं के आदेशों पर कोयलें बाध्य हो गाती हैं
जब अनाचार की परछाई सुविचार घटाने लगती है
जब कायरता बनके मिशाल मन को तड़पने लगती है
तब धर्म युद्ध के लिए हमेशा शस्त्र उठाना पड़ता है
देवी हो अथवा देव रूप धरती पर आना पड़ता है।


हर कोना भरा वीरता से इस भारत की अँगनाई का
बलिदान रहेगा सदा अमर मर्दानी लक्ष्मीबाई का।


गोरों की सत्ता के आगे वीरों के जब थे झुके भाल
झांसी पर संकट आया तो जग उठी शौर्य की महाज्वाल
अबला कहता था विश्व जिसे जब पहली बार सबल देखी
भारत क्या पूरी दुनिया ने नारी की शक्ति प्रबल देखी
फिर ले कृपाण संकल्प किया निज धरा नहीं बँटने दूँगी
मेरा शीश भले कट जाये पर अस्तित्व नहीं घटने दूँगी ।


पति परम धाम को चले गए मैं हिम्मत कैसे हारूंगी
मर जाऊँगी समरांगण में या फिर गोरों को मारूँगी।


त्यागे श्रृंगार अवस्था के रण के आभूषण धार लिए
जिन हाथों में कंगन खनके उन हाथों में तलवार लिए
शिशु पृष्ठ भाग पर बाँध लिया वल्गाएं साधी दातों में
फिर घोटक पर होकर सवार गह लिए खड्ग निज हाथों में
जब तक महिशेष शीश पर है उदाहरण तरुणाई का
बलिदान रहेगा सदा अमर मर्दानी लक्ष्मीबाई का।


गोरों की सेना पर रानी दावानल बनके छायी थी
रणचंडी ने खप्पर भर के तब अपनी प्यास बुझाई थी
उड़ चला पवन के वेग पवन बादल बादल बन बरस गया
चपला सम चमकी तलवारें दुश्मन पानी को तरस गया
रण बीच अकेली डटी रही साहस के गूँजे नारे थे
दुश्मन से बाज़ी जीत गए पर हम अपनों से हारे थे।


त्रेता में पद लोलुप होकर भाई को जब मरवाता है
द्वापर में राज हड़पने को जब महायुद्ध हो जाता है
सत्ता को अक्षुण रखने का जब लोभ मोह जग जाता है
तब गद्दारी का कुटिल दाग उसके माथे मढ़ जाता है।


इतिहास साक्ष्य बन जाता है हर अकथनीय सच्चाई का
बलिदान रहेगा सदा अमर मर्दानी लक्ष्मीबाई का।

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