नदी बोली समन्दर से | Kunwar Bechain

नदी बोली समन्दर से, मैं तेरे पास आई हूँ। मुझे भी गा मेरे शायर, मैं तेरी ही रुबाई हूँ।। मुझे ऊँचाइयों का वो अकेलापन नहीं भाया लहर होते हुये भी तो मेरा मन न लहराया मुझे बाँधे रही ठंडे बरफ की रेशमी काया। बड़ी मुश्किल से बन निर्झर, उतर पाई मैं धरती पर छुपा कर रख मुझे सागर, पसीने की कमाई हूँ।। मुझे पत्थर कभी घाटियों के प्यार ने रोका कभी कलियों कभी फूलों भरे त्यौहार ने रोका मुझे कर्तव्य से ज़्यादा किसी अधिकार ने रोका। मगर मैं रुक नहीं पाई, मैं तेरे घर चली आई मैं धड़कन हूँ मैं अँगड़ाई, तेरे दिल में समाई हूँ।। पहन कर चाँद की नथनी, सितारों से भरा आँचल नये जल की नई बूँदें, नये घुँघरू नई पायल नया झूमर नई टिकुली, नई बिंदिया नया काजल। पहन आई मैं हर गहना, कि तेरे साथ ही रहना लहर की चूड़ियाँ पहना, मैं पानी की कलाई हूँ। --कुँवर बेचैन  

हमें राग अपना बदलना पड़ेगा, बहुत हो चुका अब संभलना पड़ेगा



अगर देश से प्यार करते हो पंडित, अगर मुल्क़ से है मोहब्बत मियां तो
हमें राग अपना बदलना पड़ेगा, बहुत हो चुका अब संभलना पड़ेगा।

अगर अब न संभले,अगर अब न बदले, तो सब फूंक देंगे सियासत में पगले
न हिंदू, न मुस्लिम, न अगले,न पिछले, ये वोटों की गिनती,हैं कौमों में झगड़े
हमें और कब तक झगड़ना पड़ेगा, झगड़ते,झगड़ते उजड़ना पड़ेगा

न कुरआन पढ़ा है,न गीता पढ़ी है, मगर ज्ञान गंगा हिमालय चढ़ी है
लिखा जो नहीं वो पढ़ाया गया है, हर इक हल्फ में बरगलाया गया है
किताबों को फिर से पलटना पड़ेगा, जहालत से आगे निकलना पड़ेगा

मुसीबत तो ये है कि रहना है संग में, अगर बाढ़ आयी तो बहना है संग में
ठिकाना तुम्हारा कहीं न हमारा, मैं मंदिर का मारा,तू मस्जिद का मारा
यही सच है इसको निगलना पड़ेगा, जहर जो भरा है उगलना पड़ेगा
अगर देश से प्यार करते हो पंडित, अगर मुल्क़ से है मोहब्बत मियां तो
हमें राग अपना बदलना पड़ेगा, बहुत हो चुका अब संभलना पड़ेगा।

ये माना कि अब अपनी पटती नहीं है, मगर रात तन्हा भी कटती नहीं है 
अकेले में मिलने से कटने लगे हैं, जुलूसों में लेकिन भटकने लगे हैं 
अभी और कितना भटकना पड़ेगा, जुलूसों में पर्चों सा बँटना पड़ेगा 

न सूरज अलग है,न चंदा अलग है, न रोटी अलग है न धंधा अलग है 
जो हम ईंट पर ईंट रख दे महल हैं, सभी धर्मग्रंथों की पावन रहल हैं 
यही दीन है ये समझना पड़ेगा, सियासत से आगे निकलना पड़ेगा 











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