नदी बोली समन्दर से | Kunwar Bechain

नदी बोली समन्दर से, मैं तेरे पास आई हूँ। मुझे भी गा मेरे शायर, मैं तेरी ही रुबाई हूँ।। मुझे ऊँचाइयों का वो अकेलापन नहीं भाया लहर होते हुये भी तो मेरा मन न लहराया मुझे बाँधे रही ठंडे बरफ की रेशमी काया। बड़ी मुश्किल से बन निर्झर, उतर पाई मैं धरती पर छुपा कर रख मुझे सागर, पसीने की कमाई हूँ।। मुझे पत्थर कभी घाटियों के प्यार ने रोका कभी कलियों कभी फूलों भरे त्यौहार ने रोका मुझे कर्तव्य से ज़्यादा किसी अधिकार ने रोका। मगर मैं रुक नहीं पाई, मैं तेरे घर चली आई मैं धड़कन हूँ मैं अँगड़ाई, तेरे दिल में समाई हूँ।। पहन कर चाँद की नथनी, सितारों से भरा आँचल नये जल की नई बूँदें, नये घुँघरू नई पायल नया झूमर नई टिकुली, नई बिंदिया नया काजल। पहन आई मैं हर गहना, कि तेरे साथ ही रहना लहर की चूड़ियाँ पहना, मैं पानी की कलाई हूँ। --कुँवर बेचैन  

टूटी माला जैसे बिखरी किस्मत आज किसान की | सुदीप भोला | किसान | Farmer's suicide


जो देता है खुशहाली,जिसके दम से हरियाली आज वही बर्बाद खड़ा है,देखो उसकी बदहाली। बहुत बुरी हालत है ईश्वर,धरती के भगवान की टूटी माला जैसे बिखरी किस्मत आज किसान की। ऐसी आंधी चली की घर का तिनका तिनका बिखर गया आखिर धरती माँ से उसका प्यारा बेटा बिछड़ गया अखबारो की रद्दी बनकर बिकी कथा बलिदान की टूटी माला जैसे बिखरी किस्मत आज किसान की। इतना सूद चुकाया उसने की अपनी सुध भूल गया सावन के मौसम में झूला लगा के फाँसी झूल गया अमुवा की डाली पर देखो लाश टंगी ईमान की टूटी माला जैसे बिखरी किस्मत आज किसान की। एक अरब पच्चीस करोड़ की भूख जो रोज मिटाता है कह पता नही वो किसी से जब भूखा सो जाता है फिर सीने पर गोली खाता सरकारी सम्मान की टूटी माला जैसे बिखरी किस्मत आज किसान की। किसी को काले धन की चिंता किसी को भ्रष्टाचार की मगर लड़ाई कौन लड़ेगा फसलों के हक़दार की सरे आम बाजार में इज्जत लुट जाती खलिहान की टूटी माला जैसे बिखरी किस्मत आज किसान की। जो अपने कांधे पर देखो खुद हल लेकर चलता है आज उसी की कठनाई का हल क्यों नही निकलता है है जिससे उम्मीद उन्हें बस चिंता है मतदान की टूटी माला जैसे बिखरी किस्मत आज किसान की। देख कलेजा फट जाता है आँखों से आँसू बहते ऐसा न हो कलम रो पड़े सच्चाई कहते कहते बाली तक गिरवी रक्खी है बेटी के अभिमान की टूटी माला जैसे बिखरी किस्मत आज किसान की। चीख पड़ी खेतों की माटी तड़प उठी गम से धरती बिना कफ़न के पगडंडी से गुजरी जब उसकी अरथी और वही विदा हो गया जिसे चिंता थी कन्यादान की टूटी माला जैसे बिखरी किस्मत आज किसान की। मैं किसान के बलिदानों के गीत सुनाया करता हूँ बहरों की बस्ती से मैं फ़रियाद लगाया करता हूँ भोला तो कवि धर्म निभाता आगे मर्जी राम की टूटी माला जैसे बिखरी किस्मत आज किसान की।

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