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Showing posts from December, 2021

नदी बोली समन्दर से | Kunwar Bechain

नदी बोली समन्दर से, मैं तेरे पास आई हूँ। मुझे भी गा मेरे शायर, मैं तेरी ही रुबाई हूँ।। मुझे ऊँचाइयों का वो अकेलापन नहीं भाया लहर होते हुये भी तो मेरा मन न लहराया मुझे बाँधे रही ठंडे बरफ की रेशमी काया। बड़ी मुश्किल से बन निर्झर, उतर पाई मैं धरती पर छुपा कर रख मुझे सागर, पसीने की कमाई हूँ।। मुझे पत्थर कभी घाटियों के प्यार ने रोका कभी कलियों कभी फूलों भरे त्यौहार ने रोका मुझे कर्तव्य से ज़्यादा किसी अधिकार ने रोका। मगर मैं रुक नहीं पाई, मैं तेरे घर चली आई मैं धड़कन हूँ मैं अँगड़ाई, तेरे दिल में समाई हूँ।। पहन कर चाँद की नथनी, सितारों से भरा आँचल नये जल की नई बूँदें, नये घुँघरू नई पायल नया झूमर नई टिकुली, नई बिंदिया नया काजल। पहन आई मैं हर गहना, कि तेरे साथ ही रहना लहर की चूड़ियाँ पहना, मैं पानी की कलाई हूँ। --कुँवर बेचैन  

आओ आत्महत्या करें!| Stop suicide

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  आओ मित्र आत्महत्या करें। क्यों चौंक रहे हो ? क्यों बुरा मान रहे हो? मेरी तरफ इतना आश्चर्य से मत देखो। अगर तुम्हें कुछ अनुचित लगा तो अपने शब्द वापस लिए लेता हूँ। किन्तु सोचिये मैं न कहूँ- तो भी आमंत्रित तो तुम हो ही और आत्महत्या तो तुम कर ही रहे हो। भेद मात्र शब्द और उसकी शैली का है, न कि क्रिया और उसके संपादन का। अपनी स्पष्टवादिता के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ।  आपने मेरा आमंत्रण तो ठुकरा दिया, उन आमंत्रणों की उपस्थिति को कैसे नकारोगे जो तुम्हें उत्तेजित करते हैं कि एक झटके में अपने कमाए जीवन को गँवा दिया जाये, एक असफलता के कारण जीवन भर कमाई सैकड़ों सफलताओं को रद्दी मान लिया जाये, बचपन से संजोये सपनों को साकार न होने दिया जाये, अपने ही संरक्षकों को ठेंगा दिखाकर उनकी गढ़ी कमाई को धता बता दिया जाये। भाई मेरे- घोरतम निर्लज्जों की भाँति ये कौन है जो मनचाही प्रेमिका को पाने के लिए कुछ भी और किसी को भी खोने को तैयार है? फटे और निकम्मे जूते से भी कम मोह का परिचय देता हुआ ये कौन है जो अपने दोस्त से 2 पैसे कम की नौकरी मिलने पर खुद को शून्येतर बनाने की राह पर अग्रसर होने को है? आखिर ये कौन है जो अरब

हाथ में संकल्प वाली दूब लेकर |Dr. Madhurima Singh

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  हाथ में संकल्प वाली दूब लेकर भूल बैठी कामना के मंत्र सारे । मैं धरा की गंध भीगी भावना हूँ पूर्ण जो होती नहीं वह कामना हूँ ध्यान में उसके हुई हूँ लीन ऐसी स्वयं ही साधक, स्वयं ही साधना हूँ अर्घ्य सा अर्पित हुआ अस्तित्व मेरा पाप मेरे सब भुलाकर कौन तारे। फिर ऋचाओं के शगुन सुनने लगी हूँ सांस के फूलों में सुधि बुनने लगी हूँ दूर छिटकी लालिमा अंबर पटल पर झील पर बिखरी धुनें चुनने लगी हूँ धूप अटकी है शिखर पर मंदिरों के अब बढ़ाकर हाथ संध्या ही उतारे। प्राण से प्यारे ,अपरिचित हो गए सब कौन जाने प्रश्न का उत्तर मिले कब थिर अधर से नाम का मैं जाप करती आचमन के पान को तत्पर हुई जब अंजुरी का जल अचानक कांप जाए कौन ऐसे नाम से सहसा पुकारे। CLICK HERE FOR VIDEO:

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छुक छुक छुक छुक रेल चली है जीवन की || chhuk chhuk rail chali hai jeevan ki