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Showing posts from October, 2020

नदी बोली समन्दर से | Kunwar Bechain

नदी बोली समन्दर से, मैं तेरे पास आई हूँ। मुझे भी गा मेरे शायर, मैं तेरी ही रुबाई हूँ।। मुझे ऊँचाइयों का वो अकेलापन नहीं भाया लहर होते हुये भी तो मेरा मन न लहराया मुझे बाँधे रही ठंडे बरफ की रेशमी काया। बड़ी मुश्किल से बन निर्झर, उतर पाई मैं धरती पर छुपा कर रख मुझे सागर, पसीने की कमाई हूँ।। मुझे पत्थर कभी घाटियों के प्यार ने रोका कभी कलियों कभी फूलों भरे त्यौहार ने रोका मुझे कर्तव्य से ज़्यादा किसी अधिकार ने रोका। मगर मैं रुक नहीं पाई, मैं तेरे घर चली आई मैं धड़कन हूँ मैं अँगड़ाई, तेरे दिल में समाई हूँ।। पहन कर चाँद की नथनी, सितारों से भरा आँचल नये जल की नई बूँदें, नये घुँघरू नई पायल नया झूमर नई टिकुली, नई बिंदिया नया काजल। पहन आई मैं हर गहना, कि तेरे साथ ही रहना लहर की चूड़ियाँ पहना, मैं पानी की कलाई हूँ। --कुँवर बेचैन  

"कृष्ण की चेतावनी"-रश्मिरथी(रामधारी सिंह दिनकर)

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वर्षों तक वन में घूम-घूम, बाधा-विघ्नों को चूम-चूम, सह धूप-घाम, पानी-पत्थर, पांडव आये कुछ और निखर। सौभाग्य न सब दिन सोता है, देखें, आगे क्या होता है। मैत्री की राह बताने को, सबको सुमार्ग पर लाने को, दुर्योधन को समझाने को, भीषण विध्वंस बचाने को, भगवान् हस्तिनापुर आये, पांडव का संदेशा लाये। ‘दो न्याय अगर तो आधा दो, पर, इसमें भी यदि बाधा हो, तो दे दो केवल पाँच ग्राम, रक्खो अपनी धरती तमाम। हम वहीं खुशी से खायेंगे, परिजन पर असि न उठायेंगे! दुर्योधन वह भी दे ना सका, आशीष समाज की ले न सका, उलटे, हरि को बाँधने चला, जो था असाध्य, साधने चला। जब नाश मनुज पर छाता है, पहले विवेक मर जाता है। हरि ने भीषण हुंकार किया, अपना स्वरूप-विस्तार किया, डगमग-डगमग दिग्गज डोले, भगवान् कुपित होकर बोले- ‘जंजीर बढ़ा कर साध मुझे, हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे। यह देख, गगन मुझमें लय है, यह देख, पवन मुझमें लय है, मुझमें विलीन झंकार सकल, मुझमें लय है संसार सकल। अमरत्व फूलता है मुझमें, संहार झूलता है मुझमें। ‘उदयाचल मेरा दीप्त भाल, भूमंडल वक्षस्थल विशाल, भुज परिधि-बन्ध को घेरे हैं, मैनाक-मेरु पग मेरे हैं। दिपते जो ग्रह नक्

अबकी नवदुर्गा

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पर्व,त्यौहार,व्रत और उत्सव हमारे देश के प्राण हैं,हमारी संस्कृति की आधारशिला हैं। प्रत्येक त्यौहार का एक अर्थ है, उद्देश्य है और यही कारण है कि हमारे पूर्वजों द्वारा बनाये गए व्रत और त्यौहारों की परम्परा आदिकाल से आज तक वैसी ही चली आ रही है। जैसे कि सम्पूर्ण राष्ट्र को एक सूत्र में बाँधने वाले नवरात्र।नवरात्र के कुछ रहस्य हैं या कहें विशिष्टताएँ हैं।  शक्ति के आवाह्न का उत्सव है नवरात्री,अनुशासन से आत्मशक्ति जाग्रत करने का अवसर है नवरात्री, काम-क्रोध-मद-लोभ जिंतने भी विकार हैं सबको पीछे छोड़ कर अपने मन पर विजय पाने का उत्सव है नवरात्री है। नवरात्र का अर्थ है नौ रातें। इन रातों का विशेष रहस्य है। शायद हमारे ऋषि मुनियों ने साधना के लिए दिन की अपेक्षा रात्री को अधिक महत्व(उचित) दिया यही कारण है कि हमारे कुछ बहुत बड़े त्यौहार दीपावली, शिवरात्री,नवरात्र, होलिका दहन, दशहरा आदि रात में ही मनाये जाते हैं।  सिद्धि और साधना की दृष्टि से नवरात्र बहुत महत्वपूर्ण हैं। इन नवरात्रों में समाज व्रत, सैयम, नियम, अनुशासन, भजन, यज्ञ, पूजा आदि से अपने भीतर की आध्यात्मिक शक्ति को जाग्रत करता है। नवरात्र में द

हर हर गंगे.......

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देवनदी गंगा के विषय में भारत के प्रत्येक जनमानस को जानकारी है। माता गंगा का पृथ्वी पर अवतरण कैसे हुआ, इससे जुडी कथाएँ सब जानते हैं किन्तु बड़े विद्वानों और हमारे पूर्वजों ने माता गंगा विषय में क्या कहा है, गंगा स्तुति, रामचरितमानस में गोस्वामी जी ने माता गंगा को किस तरह वर्णित किया है,संत कबीर के विचार आदि से आपको अवगत कराने के लिए यह लेख प्रस्तुत है। गोस्वामी तुलसीदास के विचार :  गोस्वामी जी ने गंगा  विषय में बहुत विस्तार में लिखा है, शब्दों की अपनी सीमा है। गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित छंद अनुवाद सहित।  माँ गंगा स्तुति: गोस्वामी जी की प्रसिद्ध रचना विनयपत्रिका में अंकित यह एक अद्भुद रचना है। कहने को एक छंद भर है किन्तु माता गंगा की संपूर्ण महिमा के सागर को गागर में भरता प्रतीत होता है।  जय जय भगीरथ नन्दिनि, मुनि-चय चकोर-चन्दनि,  नर-नाग-बिबुध-बन्दिनि जय जहनु बालिका।  बिस्नु-पद-सरोजजासि, ईस-सीसपर बिभासि,  त्रिपथ गासि, पुन्रूरासि, पाप-छालिका।1। बिमल बिपुल बहसि बारि, सीतल त्रयताप-हारि, भँवर बर, बिभंगतर तरंग-मालिका। पुरजन पूजोपहार, सोभित ससि धवलधार, भंजन भव-भार, भक्ति-कल्पथालिका।2। थ्नज त

रंज कैसा है इन दुआओं में , बेबफ़ाई है क्यूँ बफाओं में।

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रंज कैसा है इन दुआओं में बेबफ़ाई है क्यूँ बफाओं में रो रहा है कोई कहीं शायद कुछ नमी सी है क्यूँ हवाओं में छेड़ता दिल के तार है कोई  कौन बिखरा है इन फ़िज़ाओं में  जो जुदा हो गया कभी मुझसे  गूँजता है कहीं सदाओं में  कुछ बहारें बला की थीं जिद्दी  लौट कर आ गयीं खिजाओं में  रंज कैसा है इन दुआओं में  बेबफ़ाई है क्यूँ बफाओं में।   

सच को गाकर सुनना जरूरी नहीं, प्यार है तो जताना जरूरी नहीं।

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सच को गाकर सुनना जरूरी नहीं प्यार है तो जताना जरूरी नहीं। खुद-ब-खुद ही छलक जायेगा आँख से दर्द कह कर बताना जरूरी नहीं जो छुपाया है वो राज खुल जायेगा  बेवजह मुस्कुराना जरूरी नहीं  तुम इशारा करो हम चले आएंगे  नाम लेकर बुलाना जरूरी नहीं है अगर प्यार तो साफ़ कह दीजिये  डरना या कसमसाना जरूरी नहीं  कोई मसला नहीं बात से हल न हो  हाथ खंजर उठाना जरूरी नहीं  तुम हमारे नहीं हो पता है हमें  याद हर पल दिलाना जरूरी नहीं अपनी सच्चाई से कब हैं अनजान हम  हम पे ऊँगली उठाना जरूरी नहीं  तुमको आना है तो आओ बाहों में तुम  रोज ख़्वाबों में आना जरूरी नहीं  खुद को क़दमों रख तो दिया आपके  अब नज़र से गिरना जरूरी नहीं 

हमें राग अपना बदलना पड़ेगा, बहुत हो चुका अब संभलना पड़ेगा

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अगर देश से प्यार करते हो पंडित,  अगर मुल्क़ से है मोहब्बत मियां तो हमें राग अपना बदलना पड़ेगा,  बहुत हो चुका अब संभलना पड़ेगा। अगर अब न संभले,अगर अब न बदले,  तो सब फूंक देंगे सियासत में पगले न हिंदू, न मुस्लिम, न अगले,न पिछले,  ये वोटों की गिनती,हैं कौमों में झगड़े हमें और कब तक झगड़ना पड़ेगा,  झगड़ते,झगड़ते उजड़ना पड़ेगा अगर देश से प्यार करते हो पंडित,  अगर मुल्क़ से है मोहब्बत मियां तो हमें राग अपना बदलना पड़ेगा,  बहुत हो चुका अब संभलना पड़ेगा। न कुरआन पढ़ा है,न गीता पढ़ी है, मगर ज्ञान गंगा हिमालय चढ़ी है लिखा जो नहीं वो पढ़ाया गया है, हर इक हल्फ में बरगलाया गया है किताबों को फिर से पलटना पड़ेगा, जहालत से आगे निकलना पड़ेगा अगर देश से प्यार करते हो पंडित,  अगर मुल्क़ से है मोहब्बत मियां तो हमें राग अपना बदलना पड़ेगा,  बहुत हो चुका अब संभलना पड़ेगा। मुसीबत तो ये है कि रहना है संग में, अगर बाढ़ आयी तो बहना है संग में ठिकाना तुम्हारा कहीं न हमारा, मैं मंदिर का मारा,तू मस्जिद का मारा यही सच है इसको निगलना पड़ेगा, जहर जो भरा है उगलना पड़ेगा अगर देश से प्यार करते हो पंडित,  अगर मुल्क़ से है मोहब्बत

सोचते हम रहे क्या से क्या हो गया, जीत का हार का फैसला हो गया..........

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सोचते हम रहे क्या से क्या हो गया जीत का हार का फैसला हो गया आखिरी साँस आ के चली भी गयी मौत से यूँ ख़तम फासला हो गया  दिल गवाही भला जा के देता कहाँ   कब कहाँ किस तरह वाकया हो गया    झूठ नज़रें चुराता रहा उम्र भर     सच हकीकत बना आइना हो गया  जिंदगी रोज तालीम देती रही  आसमां सा मेरा हौसला हो गया  उसका होना खटकता रहा बज्म को  वो जुबां से जरा जो खरा हो गया  हम भुलाते वो मंज़र भला किस तरह  देख जिसको जखम फिर हरा हो गया  सोचते हम रहे क्या से क्या हो गया  जीत का हार का फैसला हो गया 

नील गगन में इंद्र धनुष से किसने रंग बिखेरे सारे, टिम टिम तारों की भाषा में करता रहता कौन इशारे....

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नील गगन में इंद्र धनुष से किसने रंग बिखेरे सारे टिम टिम तारों की भाषा में करता रहता कौन इशारे। कौन मेघ बरसाकर मुझको सदा डुबोता रहता रस में मुझे सुलाने को हर संध्या डुबा रहा है कौन तमस में कौन जगाना चाहे मुझको रोज भेज रवि के उजियारे  नील गगन में इंद्र धनुष से किसने रंग बिखेरे सारे  टिम टिम तारों की भाषा में करता रहता कौन इशारे।  फूलों की डाली पर किसका सुमन सुमन बन मन खिलता है  किसका आँसू हरी दूब पर सुबह सुबह मुझको मिलता है  कौन मिलन हित रोता रहता मेरे लिए प्रकृति के द्वारे  नील गगन में इंद्र धनुष से किसने रंग बिखेरे सारे  टिम टिम तारों की भाषा में करता रहता कौन इशारे।  किसके कमल नयन छुक छुप कर मुझको रोज निहारा करते  किसके प्राण पपीहा बनकर प्रतिदिन मुझे पुकारा करते  किसको कहूँ कहानी अपनी मैं हूँ मौन लाज के मारे  नील गगन में इंद्र धनुष से किसने रंग बिखेरे सारे  टिम टिम तारों की भाषा में करता रहता कौन इशारे। 

क्या दशा कर दी ये मेरी, क्या करूँ लाचार हूँ मैं

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शृष्टि की शुभ कल्पना मैं, सप्त स्वर की अर्चना मैं यूँ तो हूँ मैं मौन लेकिन, आ पड़े तो गर्जना मैं सार हूँ श्रृंगार हूँ, अधिकार हूँ, अविकार हूँ मैं क्या दशा कर दी ये मेरी, क्या करूँ लाचार हूँ मैं रेशमी अहसास हूँ मैं, शबनमी मधुमास हूँ मैं  हूँ अमर तृप्ति कभी तो, और कभी बस प्यास हूँ मैं  पत्थरों सी हूँ कभी तो, भावना का ज्वार हूँ मैं  क्या दशा कर दी ये मेरी, क्या करूँ लाचार हूँ मैं  डगमगाते से पगों को थामकर चलना सिखाऊँ  तोतली बोली को अपने प्यार भाषा बनाऊँ  जड़ को चेतन जो करे, उस प्रार्थना का सार हूँ मैं  क्या दशा कर दी ये मेरी, क्या करूँ लाचार हूँ मैं  त्रेता की अहिल्या मैं, कलयुगी फिर निर्भया मैं  काल बदले। हाल क्यों न? वक्त की स्तब्धता मैं ? भेड़ियों की भूख मिटने के लिए बस ग्रास हूँ मैं  क्या दशा कर दी ये मेरी, क्या करूँ लाचार हूँ मैं                                                                                                                 --मनीष 

राष्ट्रपिता कौन ?

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दुबला पतला आदमी जिसने विरोध प्रदर्शन का नया और सटीक रूप प्रस्तुत किया,वो जिसके कहने भर से जन सैलाब उमड़ पड़ता था, जिसने विदेशी सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए वकालत छोड़ महात्मा बनना स्वीकार किया और धोती में ही जीवन गुजार दिया, वो जिसके सड़कों पे उतरने से ब्रितानी साम्राज्य हिल जाता था, जो अपने भजनों में "ईश्वर अल्लाह तेरो नाम" गाता था, जिसने सबसे पहले भारत को रामराज्य की परिकल्पना दी, जिसने अपनी अंतिम सभा में भी हिन्दू मुस्लिम भाईचारे की बात कही, ऐसा जननायक भारत को मिला। आप सोच रहे होंगे कि बात इतनी घुमावदार क्यों बना रहे हो? राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी, जिनकी छवि किसी भी तरह के परिचय की मोहताज नहीं है। तो भला राष्ट्रपिता के परिचय को किसी भूमिका की आवश्यकता क्यों पड़ी? “आप किसी भी राष्ट्र का निर्माण नफरत और साम्प्रदायिकता की नींव पर नहीं कर सकते।” मुख्यधारा में तो नहीं पर इसके संलग्न में ही ऐसी कोशिश हो रही हैं जो गाँधी की महात्मा और राष्ट्रपिता वाली छवि पर निरंतर हमलावर हैं। मानो महात्मा गाँधी ने देश को आजादी दिलाकर कोई अपराध किया हो। निश्चित ही ऐसे लोग भरमाये और ब्रैनवॉश का शिकार हुए

डॉ राहत इंदौरी--

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  बीमार को मर्ज़ की दवा देनी चाहिए, वो पीना चाहता है तो पिला देनी चाहिए। अल्लाह बरकतों से नवाज़ेगा इश्क़ में, है जितनी पूँजी पास लगा देनी चाहिए। ये दिल किसी फ़कीर के हुजरे से कम नहीं, ये दुनिया यही पे लाके छुपा देनी चाहिए। मैं फूल हूँ तो फूल को गुलदान हो नसीब, मैं आग हूँ तो आग बुझा देनी चाहिए। मैं ख़्वाब हूँ तो ख़्वाब से चौंकाईये मुझे, मैं नीद हूँ तो नींद उड़ा देनी चाहिए। मैं जब्र हूँ तो जब्र की ताईद हो बंद, मैं सब्र हूँ तो मुझ को दुआ देनी चाहिए। मैं ताज हूँ तो ताज को सर पे सजायें लोग, मैं ख़ाक हूँ तो ख़ाक उड़ा देनी चाहिए। सच बात कौन है जो सरे-आम कह सके, मैं कह रहा हूँ मुझको सज़ा देनी चाहिए। सौदा यही पे होता है हिन्दोस्तान का, संसद में आग लगा देनी चाहिए।।

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