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नदी बोली समन्दर से | Kunwar Bechain

नदी बोली समन्दर से, मैं तेरे पास आई हूँ। मुझे भी गा मेरे शायर, मैं तेरी ही रुबाई हूँ।। मुझे ऊँचाइयों का वो अकेलापन नहीं भाया लहर होते हुये भी तो मेरा मन न लहराया मुझे बाँधे रही ठंडे बरफ की रेशमी काया। बड़ी मुश्किल से बन निर्झर, उतर पाई मैं धरती पर छुपा कर रख मुझे सागर, पसीने की कमाई हूँ।। मुझे पत्थर कभी घाटियों के प्यार ने रोका कभी कलियों कभी फूलों भरे त्यौहार ने रोका मुझे कर्तव्य से ज़्यादा किसी अधिकार ने रोका। मगर मैं रुक नहीं पाई, मैं तेरे घर चली आई मैं धड़कन हूँ मैं अँगड़ाई, तेरे दिल में समाई हूँ।। पहन कर चाँद की नथनी, सितारों से भरा आँचल नये जल की नई बूँदें, नये घुँघरू नई पायल नया झूमर नई टिकुली, नई बिंदिया नया काजल। पहन आई मैं हर गहना, कि तेरे साथ ही रहना लहर की चूड़ियाँ पहना, मैं पानी की कलाई हूँ। --कुँवर बेचैन  

Bhagat Singh, Sukhdev, Rajguru Shaheedi Diwas

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घोड़ी चढ़ने की ललक मन में रही नहीं फांसी चढ़ने का ख्वाब लिए बलिदानी था लावा बन बहता था श्रोणित शिराओं में जो वीर अभिमानी पंचनद वाला पानी था दस गुरुओं की शक्ति भक्ति भावना का ज्वार फिरंगी को ललकार वीर स्वाभिमानी था आतताइयों ने भले फांसी पे चढ़ा दिया किन्तु अमर मशाल बना क्रांति का सैनानी था। मातृभूमि को दिलाने मुक्ति जो कमाया नाम बलिदानी शौर्य की सच्चाई को नमन है जिसने अमर क्रांतिज्वाल को जन्म दिया ऐसी पुण्य कोख वाली मायी को नमन है इन्कलाब ज़िंदाबाद वाले घोष को नमन और आजादी के युद्ध के कन्हाई को नमन है वरमाल की बजाय फंदे को गले में डाला भगत की क्रांति तरुणाई को नमन है।  

महाशिवरात्रि

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  सृष्टि का उदय भी तू है सृष्टि का विलय भी तू है  तू ही तम है, तू प्रकाश,तू विनाश , तू विकास  सृष्टि के विनाश में तू ही तो एक आस है  है अस्त्र तू , शस्त्र तू , तू ही तो चन्द्रहास है  गंग तेरे अंग का अभन्न एक रंग है  पड़े गले भुजंग और बज रहे मृदंग है  आदि से अनादि तक समाधी भी लगी रहे  लपट लपट के ज्वलन वो जोत भी जली रहे  टनन टनन सी घंटियाँ घनन घनन मृदंग है  विकराल काल छाल पे वो चक्षु लाल रंग है  क्रोध भी प्रचंड तो ये तेज भी अखंड है  पाँव के तले जो रौंधे विश्व का घमंड है  चमक चमक है चन्द्रमा प्रभो तुम्हारे शीश पर  तुम्हारी सी चमक रहे प्रभो हमारे शीश पर 

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