नदी बोली समन्दर से | Kunwar Bechain

नदी बोली समन्दर से, मैं तेरे पास आई हूँ। मुझे भी गा मेरे शायर, मैं तेरी ही रुबाई हूँ।। मुझे ऊँचाइयों का वो अकेलापन नहीं भाया लहर होते हुये भी तो मेरा मन न लहराया मुझे बाँधे रही ठंडे बरफ की रेशमी काया। बड़ी मुश्किल से बन निर्झर, उतर पाई मैं धरती पर छुपा कर रख मुझे सागर, पसीने की कमाई हूँ।। मुझे पत्थर कभी घाटियों के प्यार ने रोका कभी कलियों कभी फूलों भरे त्यौहार ने रोका मुझे कर्तव्य से ज़्यादा किसी अधिकार ने रोका। मगर मैं रुक नहीं पाई, मैं तेरे घर चली आई मैं धड़कन हूँ मैं अँगड़ाई, तेरे दिल में समाई हूँ।। पहन कर चाँद की नथनी, सितारों से भरा आँचल नये जल की नई बूँदें, नये घुँघरू नई पायल नया झूमर नई टिकुली, नई बिंदिया नया काजल। पहन आई मैं हर गहना, कि तेरे साथ ही रहना लहर की चूड़ियाँ पहना, मैं पानी की कलाई हूँ। --कुँवर बेचैन  

राहों में भी रिश्ते बन जाते हैं, ये रिश्ते भी मंजिल तक जाते हैं | Pramod Tiwari

( पूरी कविता सुनें )

राहों में भी रिश्ते बन जाते हैं, ये रिश्ते भी मंजिल तक जाते हैं, आओ तुमको एक गीत सुनाते हैं, रिश्तों की खुशबू में नहलाते हैं। मेरे घर के आगे एक खिड़की थी, खिड़की से झाँका करती लड़की थी, इक रोज मैंने यूँ हीं टाफी खाई, फिर जीभ निकाली उसको दिखलाई, गुस्से में वो छज्जे पर आन खड़ी, आँखों ही आँखों मुझसे बहुत लड़ी, उसने भी फिर टाफी मँगवाई थी, आधी झूठी करके भिजवाई थी। वो झूठ टाफी अब भी मुँह में है, हो गई सुगर हम फिर भी खाते हैं। राहों में भी रिश्ते बन जाते हैं, ये रिश्ते भी मंजिल तक जाते हैं। दिल्ली की बस्ती मेरे बाजू में, इक गोरी-गोरी बिल्ली बैठी थी, बिल्ली के उड़ते रेशमी बालों से, मेरे दिल की चुहिया कुछ ऐंठी थी, चुहिया ने उस बिल्ली को काट लिया, बस फिर क्या था बिल्ली का ठाट हुआ, वो बिल्ली अब भी मेरे बाजू है, उसके बाजू में मेरा राजू है। अब बिल्ली,चुहिया,राजू सब मिलकर मुझको ही मेरा गीत सुनाते हैं। राहों में भी रिश्ते बन जाते हैं, ये रिश्ते भी मंजिल तक जाते हैं। एक दोस्त मेरा सीमा पर रहता था, चिट्ठी में जाने क्या-क्या कहता था, उर्दू आती थी नहीं मुझे लेकिन, उसको जवाब उर्दू में देता था, एक रोज़ मौलवी नहीं रहे भाई, अगले दिन ही उसकी चिट्ठी आई, ख़त का जवाब अब किससे लिखवाता, वह तो सीमा पर रो-रो मर जाता। हम उर्दू सीख रहे हैं नेट-युग में, अब खुद जवाब लिखते हैं गाते हैं। राहों में भी रिश्ते बन जाते हैं, ये रिश्ते भी मंजिल तक जाते हैं। इक बूढ़ा रोज गली में आता था, जाने किस भाषा में वह गाता था, लेकिन उसका स्वर मेरे कानों में, अब उठो लाल कहकर खो जाता था, मैं,निपट अकेला सोता खाता था, नौ बजे क्लास का टाइम होता था, एक रोज ‘मिस’नहीं मेरी क्लास हुई, मैं ‘टाप’ कर गया पूरी आस हुई। वो बूढ़ा जाने किस नगरी में हो, उसके स्वर अब भी हमें जगाते हैं । राहों में भी रिश्ते बन जाते हैं, ये रिश्ते भी मंजिल तक जाते हैं। इन राहों वाले मीठे रिश्तों से, हम युगों-युगों से बँधे नहीं होते, दो जन्मों वाले रिश्तों के पर्वत, अपने कन्धों पर सधे नहीं होते, बाबा की धुन ने समय बताया है, उर्दू के खत ने साथ निभाया है, बिल्ली ने चुहिया को दुलराया है, झूठी टाफी ने प्यार सिखाया है। हम ऐसे रिश्तों की फेरी लेकर, गलियों-गलियों आवाज लगाते हैं, राहों में भी रिश्ते बन जाते हैं, ये रिश्ते भी मंजिल तक जाते हैं।

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