नदी बोली समन्दर से | Kunwar Bechain

नदी बोली समन्दर से, मैं तेरे पास आई हूँ। मुझे भी गा मेरे शायर, मैं तेरी ही रुबाई हूँ।। मुझे ऊँचाइयों का वो अकेलापन नहीं भाया लहर होते हुये भी तो मेरा मन न लहराया मुझे बाँधे रही ठंडे बरफ की रेशमी काया। बड़ी मुश्किल से बन निर्झर, उतर पाई मैं धरती पर छुपा कर रख मुझे सागर, पसीने की कमाई हूँ।। मुझे पत्थर कभी घाटियों के प्यार ने रोका कभी कलियों कभी फूलों भरे त्यौहार ने रोका मुझे कर्तव्य से ज़्यादा किसी अधिकार ने रोका। मगर मैं रुक नहीं पाई, मैं तेरे घर चली आई मैं धड़कन हूँ मैं अँगड़ाई, तेरे दिल में समाई हूँ।। पहन कर चाँद की नथनी, सितारों से भरा आँचल नये जल की नई बूँदें, नये घुँघरू नई पायल नया झूमर नई टिकुली, नई बिंदिया नया काजल। पहन आई मैं हर गहना, कि तेरे साथ ही रहना लहर की चूड़ियाँ पहना, मैं पानी की कलाई हूँ। --कुँवर बेचैन  

अब गुल नहीं, गुलशन नहीं.......


अब गुल नहीं, गुलशन नहीं, तिरछी नज़र मे वह धार है
वो खत रहे, कासिद कोई, ही जिगर मे वह प्यार है,
ही लेखनी मे वह दम रहा, तो पाठकों मे समझ रही
अब प्यार जिस्म मे फँस गया, तो दिल, ही दिलदार है।

अब टाइप होते हर्फ हैं, ईमोजी करते बात हैं
फारवर्ड होती शायरी, बासी सभी जज़्बात हैं
बंधन किसी का, "थ्रू" किसी के, आशिकों मे बँट रहा
गहराई कैसे आयेगी, जब आशिक के ये हालात हैं?
ओढ़ कर पच्छिम की संस्कृति, भूलिये रुसवाइयां
अब वह यादें रहीं हैं, और वह तनहाइयाँ,
आशिक बदलते जा रहे, माशूका भी कम नही
ऐसे छिछले पानी मे, मत ढूँढिये गहराइयाँ

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