नदी बोली समन्दर से | Kunwar Bechain

नदी बोली समन्दर से, मैं तेरे पास आई हूँ। मुझे भी गा मेरे शायर, मैं तेरी ही रुबाई हूँ।। मुझे ऊँचाइयों का वो अकेलापन नहीं भाया लहर होते हुये भी तो मेरा मन न लहराया मुझे बाँधे रही ठंडे बरफ की रेशमी काया। बड़ी मुश्किल से बन निर्झर, उतर पाई मैं धरती पर छुपा कर रख मुझे सागर, पसीने की कमाई हूँ।। मुझे पत्थर कभी घाटियों के प्यार ने रोका कभी कलियों कभी फूलों भरे त्यौहार ने रोका मुझे कर्तव्य से ज़्यादा किसी अधिकार ने रोका। मगर मैं रुक नहीं पाई, मैं तेरे घर चली आई मैं धड़कन हूँ मैं अँगड़ाई, तेरे दिल में समाई हूँ।। पहन कर चाँद की नथनी, सितारों से भरा आँचल नये जल की नई बूँदें, नये घुँघरू नई पायल नया झूमर नई टिकुली, नई बिंदिया नया काजल। पहन आई मैं हर गहना, कि तेरे साथ ही रहना लहर की चूड़ियाँ पहना, मैं पानी की कलाई हूँ। --कुँवर बेचैन  

वो बचपन फिर से ला दो माँ


बहुत बोझ है कन्धों पर और चिंताओं ने घेरा है
न है निश्चित ठौर ठिकाना अस्थिर मेरा बसेरा है
दो छैया फिर से पल्लू की लोरी मुझे सुना दो माँ
कितना मनोरम बीता था वो बचपन फिर से ला दो माँ।


भोर तेरी मीठी बोली सुनकर दिन शुभ होता था
रात तेरी मीठी लोरी सुन बिस्तर पर सोता था
अब तो शोर घडी का सुनकर उठना ही मजबूरी है
रात रात भर जाग जागकर पढ़ना मात जरूरी है।
थका हुआ हूँ काम बहुत है आकर सिर सहला दो माँ
कितना मनोरम बीता था वो बचपन फिर से ला दो माँ।

लट्टू के चक्कर खोये हैं गिल्ली डंडा छूट गया
कंचे फूट गए हैं सारे बल्ला मेरा टूट गया
कंप्यूटर पर काम हूँ करता देह मेरी दुःख जाती है
बैठे बैठे दिन भर अम्मा याद तेरी आ जाती है। 
प्रतिपल एक परीक्षा देनी आकर दही चटा दो माँ
कितना मनोरम बीता था वो बचपन फिर से ला दो माँ। 

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