नदी बोली समन्दर से | Kunwar Bechain

नदी बोली समन्दर से, मैं तेरे पास आई हूँ। मुझे भी गा मेरे शायर, मैं तेरी ही रुबाई हूँ।। मुझे ऊँचाइयों का वो अकेलापन नहीं भाया लहर होते हुये भी तो मेरा मन न लहराया मुझे बाँधे रही ठंडे बरफ की रेशमी काया। बड़ी मुश्किल से बन निर्झर, उतर पाई मैं धरती पर छुपा कर रख मुझे सागर, पसीने की कमाई हूँ।। मुझे पत्थर कभी घाटियों के प्यार ने रोका कभी कलियों कभी फूलों भरे त्यौहार ने रोका मुझे कर्तव्य से ज़्यादा किसी अधिकार ने रोका। मगर मैं रुक नहीं पाई, मैं तेरे घर चली आई मैं धड़कन हूँ मैं अँगड़ाई, तेरे दिल में समाई हूँ।। पहन कर चाँद की नथनी, सितारों से भरा आँचल नये जल की नई बूँदें, नये घुँघरू नई पायल नया झूमर नई टिकुली, नई बिंदिया नया काजल। पहन आई मैं हर गहना, कि तेरे साथ ही रहना लहर की चूड़ियाँ पहना, मैं पानी की कलाई हूँ। --कुँवर बेचैन  

पत्त्थर-बजी रुकी नहीं तो कविता ज्वाला बन जाएगी | कविता तिवारी | कश्मीर



कल कल छल छल करती कविता उतरी है सुरसरी के सामान

सबका हित हो सभी सुखी रहें खोजती हमेशा उपादान

पशु पक्षी प्राणी सचर अचर जड़ चेतन सब खुशहाल रहें 

हो रीत नीति सबके अंदर संस्कृति से मालामाल रहें 

सबके उर में मृदुता जगे कविता का भाव यही तो है 

बन जाये अंगुलिमाल संत अतिसूक्ष्म प्रभाव यही तो है 

संकट में यदि राष्ट्र आये तो सम्मुख डटती है कविता 

पर अनायास मर जाती है जब पीछे हटती है कविता 

इतिहास पूर्वजों का पढ़कर स्वर्णिम भविष्य को जाएगी 

सोया पौरुष जिनके भीतर उनको झकझोर जगाएगी 

झुकने की भी अपनी सीमा है आखिर कब तक झुक पाएगी 

मन के भीतर वाली पीड़ा आखिर कब तक रुक पाएगी 

शब्दों की बाजीगरी नहीं पथ आगे बढ़ अपनाएगी 

पत्तरबाजी यदि रुकी नहीं तो कविता ज्वाला बन जाएगी।


कश्मीर स्वर्ग है धरती का हमको प्राणों से प्यारा है 

सुंदरता का पावन तीरथ सज्जनता का गुरुद्वारा है 

इस सज्जनता को दुर्जनता जब यदा कदा तड़पती है 

भूली भटकी है रस्ते से दामन में आग लगाती है 

पत्थर नवजात उठाये हैं भटकों को तू समझा मौला 

ये डूब न जाएं साहिल पर तू इनको पार लगा मौला 

सैनिक जो उनका रक्षक ये उस पर घात लगाते 

ये मर्यादा को भूल गए अपनी औकात दिखाते हैं

हिंसक बनकर जो टूटेगी वो नस्ल बहुत पछ्तायेगी 

सैनिक की अपनी सहनशक्ति जिस रोज दगा दे जाएगी 

सुधरेगी अगर जमात नहीं घनघोर घटा बन छाएगी 

इस भारत माता की कविता फिर चीखेगी चिल्लायेगी 

समता का भाव त्याग देगी फिर रौद्र रूप अपनाएगी 

पत्तरबाजी यदि रुकी नहीं तो कविता ज्वाला बन जाएगी। 


हल कर सकते हो चुटकी में ये प्रश्न नहीं है बहुत बड़ा 

सैनिकों न मन में घबराना है देश तुम्हारे साथ खड़ा 

सीमा तक धारण करो धैर्य मतवालों का मदवालों का 

सौ से आगे यदि बढ़ जाएं वध कर डालों शिशुपालों का 

 बोटी बोटी करके फेंको टुकड़े फौरन मक्कारों के 

अंदर हो चाहें बाहर हों कुल भारत के गद्दारों के 

तोड़ो तोड़ तुरंत तोड़ो बेड़ियाँ पड़ी जो पाँवों में 

तुम लिपट तिरंगे में आखिर कब तक आओगे गाँवों में 

हो चुका राग सहिष्णुता का बदलो जवाब की भाषा को 

यह देश आरती लिए खड़ा पूरण कर दो अभिलाषा को 

करनी पर दुश्मन की सेना सिर धुन धुन कर पछ्तायेगी 

निज ठौर ठिकाना ढूंढेगी फिर भी न कहीं बच पायेगी 

बरदाई जैसा लक्ष्य लिए गौरी का वध करवाएगी 

पत्तरबाजी यदि रुकी नहीं तो कविता ज्वाला बन जाएगी।





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