नदी बोली समन्दर से | Kunwar Bechain

नदी बोली समन्दर से, मैं तेरे पास आई हूँ। मुझे भी गा मेरे शायर, मैं तेरी ही रुबाई हूँ।। मुझे ऊँचाइयों का वो अकेलापन नहीं भाया लहर होते हुये भी तो मेरा मन न लहराया मुझे बाँधे रही ठंडे बरफ की रेशमी काया। बड़ी मुश्किल से बन निर्झर, उतर पाई मैं धरती पर छुपा कर रख मुझे सागर, पसीने की कमाई हूँ।। मुझे पत्थर कभी घाटियों के प्यार ने रोका कभी कलियों कभी फूलों भरे त्यौहार ने रोका मुझे कर्तव्य से ज़्यादा किसी अधिकार ने रोका। मगर मैं रुक नहीं पाई, मैं तेरे घर चली आई मैं धड़कन हूँ मैं अँगड़ाई, तेरे दिल में समाई हूँ।। पहन कर चाँद की नथनी, सितारों से भरा आँचल नये जल की नई बूँदें, नये घुँघरू नई पायल नया झूमर नई टिकुली, नई बिंदिया नया काजल। पहन आई मैं हर गहना, कि तेरे साथ ही रहना लहर की चूड़ियाँ पहना, मैं पानी की कलाई हूँ। --कुँवर बेचैन  

साँस लेते हुए फूलों का मोअ-त्तर साया

 

साँस लेते हुए फूलों का मोअ-त्तर साया 

एक मुद्दत से कहाँ ऐसा मयस्सर साया 


मेरी तकदीर तो है हिज़्र की बे-मेहर ये धूप 

और होंगे कि हुआ जिनका मुकद्दर साया 


इन सुकून-बख्श फ़िज़ाओं से खबरदार ऐ दिल 

किश्त-ए-ज़रखेज को कर जाता है बंज़र साया 


ये जरूरी तो नहीं नूर से रौशन हो बजूद 

देखो मा-दूम हुआ होके मुनव्वर साया 


मेरी कोताह कदी मुझको जताने के लिए 

आ गया फिर मेरी कामत के बराबर साया 


ताकि हिजरत की कड़ी धूप में तन्हाई न हो 

आ गया साथ मेरे घर से निकलकर साया 


वक्त-ए-रुखसत जो मेरा ज़ाद-ए-सफर ठहरी थीं 

उन दुआओं का नहीं अब मेरे सर पर साया 


वो मेरे शहर में ठहरे भी तो इतना ठहरे 

जैसे परवाज़ के दौराम ज़मीं पर साया 





मोअ-त्तर: सुगंधित 

मयस्सर: मिलना 

बे-मेहर: जिसमें ममता न हो, निर्दय

किश्त-ए-ज़रखेज: अच्छी उपजाऊ वाली जमीन 

मा-दूम: गायब 

मुनव्वर: जगमग, प्रकाशित, रोशन, उज्ज्वल, कांति, वैभवशाली

कोताह कदी: कम कद 

कामत: आकार, कद 

ज़ाद-ए-सफर: सफर का सहारा   

परवाज़: उड़ान 



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