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नदी बोली समन्दर से | Kunwar Bechain

नदी बोली समन्दर से, मैं तेरे पास आई हूँ। मुझे भी गा मेरे शायर, मैं तेरी ही रुबाई हूँ।। मुझे ऊँचाइयों का वो अकेलापन नहीं भाया लहर होते हुये भी तो मेरा मन न लहराया मुझे बाँधे रही ठंडे बरफ की रेशमी काया। बड़ी मुश्किल से बन निर्झर, उतर पाई मैं धरती पर छुपा कर रख मुझे सागर, पसीने की कमाई हूँ।। मुझे पत्थर कभी घाटियों के प्यार ने रोका कभी कलियों कभी फूलों भरे त्यौहार ने रोका मुझे कर्तव्य से ज़्यादा किसी अधिकार ने रोका। मगर मैं रुक नहीं पाई, मैं तेरे घर चली आई मैं धड़कन हूँ मैं अँगड़ाई, तेरे दिल में समाई हूँ।। पहन कर चाँद की नथनी, सितारों से भरा आँचल नये जल की नई बूँदें, नये घुँघरू नई पायल नया झूमर नई टिकुली, नई बिंदिया नया काजल। पहन आई मैं हर गहना, कि तेरे साथ ही रहना लहर की चूड़ियाँ पहना, मैं पानी की कलाई हूँ। --कुँवर बेचैन  

मोहब्बतों को सलीका सिखा दिया मैंने | Anjum Rahbar Latest Gazal | अंजुम रहबर की की अनसुनी ग़ज़लें | तुझे शायर बना दिया मैंने

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मोहब्बतों को सलीका सिखा दिया मैंने  तेरे बगैर भी जीकर दिखा दिया मैंने  बिछड़ना मिलना तो किस्मत की बात है लेकिन दुआएँ दे तुझे शायर बना दिया मैंने  जो तेरी याद दिलाता था चहचहाता था  मुंडेर से वो परिंदा उड़ा दिया मैंने   जहाँ सजा के मैं रखती थी तेरी तश्वीरें  अब उस मकान में ताला लगा दिया मैंने  ये मेरे शेर नहीं मेरे ज़ख़्म हैं अंजुम  ग़ज़ल के नाम पर क्या क्या सुना दिया मैंने 

एक सूनी शाम मेरे फ़साने में रह गई | Anjum Rahbar Latest Gazal | अंजुम रहबर की की अनसुनी ग़ज़लें

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एक सूनी शाम मेरे फ़साने में रह गई मैं दूसरो की शम्मा जलाने में रह गई गलियों में रुख्स करने लगी दोपहर की धूप मैं अपने साथियो को जगाने में रह गई वापस हुई तो घर मेरा शोलो की जद में था मैं मंदिरों के दीप जलाने में रह गई वो आके मेरे गाँव से वापस भी जा चुका  मैं थी के अपने घर को सजाने में रह गई दुनिया से सारी उम्र तार्रुफ़ न हो सका अंजुम मैं खुद को खुद से मिलाने में रह गई

ये कौन जा रहा है मेरा गाँव छोड़ के | Anjum Rahbar Latest Gazal | अंजुम रहबर की की अनसुनी ग़ज़लें

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ये कौन जा रहा है मेरा गाँव छोड़ के  आँखों ने रख दिए हैं समंदर निचोड़ के  मैं अपनी शक्ल ढूँढती रहती हूँ रात दिन  आईने तोड़के कभी आईने जोड़के  आँधी का कोई खौफ़ न खतरा हवाओं का  मैंने दीये बनाए हैं सूरज को तोड़ के ताबीर बनके आने ही वाली है अब सहर  सूरज बना रही हूँ दिये जोड़ जोड़ के वो खत भी तुझको मिल ही गया होगा जानेमन  सबकुछ लिखा है जिसमें तेरा नाम छोड़के

सुन सुन सुन दीवाने सुन सुन सुन

सुन सुन सुन दीवाने सुन सुन सुन  धड़कन के हर द्वारे पर जीवन के इकतारे पर सांसों की ये धुन  ये नगरी बाजार ठगों का मक्कारों का घेरा, तेरा न मेरा  जाने किस दिन लुट जायेगा अपना रैन बसेरा, ये जोगी फेरा  दुनिया की गहराई में, झूठ में और सच्चाई में, अपना रास्ता चुन  सुन सुन सुन दीवाने सुन सुन सुन मुल्ला पंडित ज्ञानी ध्यानी सरे लोग अभागे, हैं उलझे धागे  एक धर्म है मंदिर मस्जिद गुरुद्वारों से आगे, कोई तो जागे  सुख के माल खजाने से, दुःख के ताने बाने से, प्यार की चादर बुन  सुन सुन सुन दीवाने सुन सुन सुन उजले उजले कपड़ों वाले सब हैं मन के काले, बड़े घोटाले  हम आँसू के घूँट पिएं और ये मदिरा के प्याले, ये खद्दर वाले  जितने सत्ताधारी है, इस धरती पर भरी हैं, सब हैं पिके टुन  सुन सुन सुन दीवाने सुन सुन सुन चलते चलते थक जायेगा जीवन का बंजारा, ये है बेचारा  साथ बहाकर ले जाएगी तेरा घर चौबारा, समय की धारा  सारी खेती वाड़ी को, तेरी घोडा गाड़ी को, लग जायेगा घुन  सुन सुन सुन दीवाने सुन सुन सुन पेट की पापी खाई को हमने जीवन भर है पाटा, है गीला आटा...

पत्त्थर-बजी रुकी नहीं तो कविता ज्वाला बन जाएगी | कविता तिवारी | कश्मीर

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कल कल छल छल करती कविता उतरी है सुरसरी के सामान सबका हित हो सभी सुखी रहें खोजती हमेशा उपादान पशु पक्षी प्राणी सचर अचर जड़ चेतन सब खुशहाल रहें  हो रीत नीति सबके अंदर संस्कृति से मालामाल रहें  सबके उर में मृदुता जगे कविता का भाव यही तो है  बन जाये अंगुलिमाल संत अतिसूक्ष्म प्रभाव यही तो है  संकट में यदि राष्ट्र आये तो सम्मुख डटती है कविता  पर अनायास मर जाती है जब पीछे हटती है कविता  इतिहास पूर्वजों का पढ़कर स्वर्णिम भविष्य को जाएगी  सोया पौरुष जिनके भीतर उनको झकझोर जगाएगी  झुकने की भी अपनी सीमा है आखिर कब तक झुक पाएगी  मन के भीतर वाली पीड़ा आखिर कब तक रुक पाएगी  शब्दों की बाजीगरी नहीं पथ आगे बढ़ अपनाएगी  पत्तरबाजी यदि रुकी नहीं तो कविता ज्वाला बन जाएगी। कश्मीर स्वर्ग है धरती का हमको प्राणों से प्यारा है  सुंदरता का पावन तीरथ सज्जनता का गुरुद्वारा है  इस सज्जनता को दुर्जनता जब यदा कदा तड़पती है  भूली भटकी है रस्ते से दामन में आग लगाती है  पत्थर नवजात उठाये हैं भटकों को तू समझा मौला  ये डूब न जाएं साहिल पर तू इनको पार ...

साँस लेते हुए फूलों का मोअ-त्तर साया

  साँस लेते हुए फूलों का मोअ-त्तर साया  एक मुद्दत से कहाँ ऐसा मयस्सर साया  मेरी तकदीर तो है हिज़्र की बे-मेहर ये धूप  और होंगे कि हुआ जिनका मुकद्दर साया  इन सुकून-बख्श फ़िज़ाओं से खबरदार ऐ दिल  किश्त-ए-ज़रखेज को कर जाता है बंज़र साया  ये जरूरी तो नहीं नूर से रौशन हो बजूद  देखो मा-दूम हुआ होके मुनव्वर साया  मेरी कोताह कदी मुझको जताने के लिए  आ गया फिर मेरी कामत के बराबर साया  ताकि हिजरत की कड़ी धूप में तन्हाई न हो  आ गया साथ मेरे घर से निकलकर साया  वक्त-ए-रुखसत जो मेरा ज़ाद-ए-सफर ठहरी थीं  उन दुआओं का नहीं अब मेरे सर पर साया  वो मेरे शहर में ठहरे भी तो इतना ठहरे  जैसे परवाज़ के दौराम ज़मीं पर साया  मोअ-त्तर: सुगंधित  मयस्सर: मिलना  बे-मेहर: जिसमें ममता न हो, निर्दय किश्त-ए-ज़रखेज: अच्छी उपजाऊ वाली जमीन  मा-दूम: गायब  मुनव्वर: जगमग, प्रकाशित, रोशन, उज्ज्वल, कांति, वैभवशाली कोताह कदी: कम कद  कामत: आकार, कद  ज़ाद-ए-सफर: सफर का सहारा    परवाज़: उड़ान 

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छुक छुक छुक छुक रेल चली है जीवन की || chhuk chhuk rail chali hai jeevan ki