नदी बोली समन्दर से | Kunwar Bechain

नदी बोली समन्दर से, मैं तेरे पास आई हूँ। मुझे भी गा मेरे शायर, मैं तेरी ही रुबाई हूँ।। मुझे ऊँचाइयों का वो अकेलापन नहीं भाया लहर होते हुये भी तो मेरा मन न लहराया मुझे बाँधे रही ठंडे बरफ की रेशमी काया। बड़ी मुश्किल से बन निर्झर, उतर पाई मैं धरती पर छुपा कर रख मुझे सागर, पसीने की कमाई हूँ।। मुझे पत्थर कभी घाटियों के प्यार ने रोका कभी कलियों कभी फूलों भरे त्यौहार ने रोका मुझे कर्तव्य से ज़्यादा किसी अधिकार ने रोका। मगर मैं रुक नहीं पाई, मैं तेरे घर चली आई मैं धड़कन हूँ मैं अँगड़ाई, तेरे दिल में समाई हूँ।। पहन कर चाँद की नथनी, सितारों से भरा आँचल नये जल की नई बूँदें, नये घुँघरू नई पायल नया झूमर नई टिकुली, नई बिंदिया नया काजल। पहन आई मैं हर गहना, कि तेरे साथ ही रहना लहर की चूड़ियाँ पहना, मैं पानी की कलाई हूँ। --कुँवर बेचैन  

हाथ में संकल्प वाली दूब लेकर |Dr. Madhurima Singh

 




हाथ में संकल्प वाली दूब लेकर
भूल बैठी कामना के मंत्र सारे ।

मैं धरा की गंध भीगी भावना हूँ
पूर्ण जो होती नहीं वह कामना हूँ
ध्यान में उसके हुई हूँ लीन ऐसी
स्वयं ही साधक, स्वयं ही साधना हूँ
अर्घ्य सा अर्पित हुआ अस्तित्व मेरा
पाप मेरे सब भुलाकर कौन तारे।

फिर ऋचाओं के शगुन सुनने लगी हूँ
सांस के फूलों में सुधि बुनने लगी हूँ
दूर छिटकी लालिमा अंबर पटल पर
झील पर बिखरी धुनें चुनने लगी हूँ
धूप अटकी है शिखर पर मंदिरों के
अब बढ़ाकर हाथ संध्या ही उतारे।

प्राण से प्यारे ,अपरिचित हो गए सब
कौन जाने प्रश्न का उत्तर मिले कब
थिर अधर से नाम का मैं जाप करती
आचमन के पान को तत्पर हुई जब
अंजुरी का जल अचानक कांप जाए
कौन ऐसे नाम से सहसा पुकारे।

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