नदी बोली समन्दर से | Kunwar Bechain

नदी बोली समन्दर से, मैं तेरे पास आई हूँ। मुझे भी गा मेरे शायर, मैं तेरी ही रुबाई हूँ।। मुझे ऊँचाइयों का वो अकेलापन नहीं भाया लहर होते हुये भी तो मेरा मन न लहराया मुझे बाँधे रही ठंडे बरफ की रेशमी काया। बड़ी मुश्किल से बन निर्झर, उतर पाई मैं धरती पर छुपा कर रख मुझे सागर, पसीने की कमाई हूँ।। मुझे पत्थर कभी घाटियों के प्यार ने रोका कभी कलियों कभी फूलों भरे त्यौहार ने रोका मुझे कर्तव्य से ज़्यादा किसी अधिकार ने रोका। मगर मैं रुक नहीं पाई, मैं तेरे घर चली आई मैं धड़कन हूँ मैं अँगड़ाई, तेरे दिल में समाई हूँ।। पहन कर चाँद की नथनी, सितारों से भरा आँचल नये जल की नई बूँदें, नये घुँघरू नई पायल नया झूमर नई टिकुली, नई बिंदिया नया काजल। पहन आई मैं हर गहना, कि तेरे साथ ही रहना लहर की चूड़ियाँ पहना, मैं पानी की कलाई हूँ। --कुँवर बेचैन  

72th Republic Day



जिनकी कुर्बत माँ भारती के श्रृंगारों से कम नहीं 

याद उन वीरों की खुदा की वंदगी से कम नहीं 


जंग में जो दुश्मनों को मारकर हासिल हुई 

वो शहादत भी यक़ीनन जिंदगी से कम नहीं  


बर्फ का ओढ़े कफ़न जो चढ़ रहे हैं चोटियाँ 

उनकी ये हिम्मत किसी दीवानगी से काम नहीं 


अपने बेटों को जो हँस कर भेज देती जंग में 

ऐसी माई पन्ना और दुर्गावती से काम नहीं 


जान देकर जो बचाते हैं वतन की आबरू 

उनकी विधवानी किसी देवी सती नहीं


है पढ़ा इतिहास अपना और पढ़ा भूगोल भी 

फिर भी हमसे जंग लड़ना खुदखुशी से कम नहीं 


केवल एटम तक नहीं अपने इरादे जान लो  

दुनिया वालों देख लेना हम किसी से कम नहीं  




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