नदी बोली समन्दर से | Kunwar Bechain

नदी बोली समन्दर से, मैं तेरे पास आई हूँ। मुझे भी गा मेरे शायर, मैं तेरी ही रुबाई हूँ।। मुझे ऊँचाइयों का वो अकेलापन नहीं भाया लहर होते हुये भी तो मेरा मन न लहराया मुझे बाँधे रही ठंडे बरफ की रेशमी काया। बड़ी मुश्किल से बन निर्झर, उतर पाई मैं धरती पर छुपा कर रख मुझे सागर, पसीने की कमाई हूँ।। मुझे पत्थर कभी घाटियों के प्यार ने रोका कभी कलियों कभी फूलों भरे त्यौहार ने रोका मुझे कर्तव्य से ज़्यादा किसी अधिकार ने रोका। मगर मैं रुक नहीं पाई, मैं तेरे घर चली आई मैं धड़कन हूँ मैं अँगड़ाई, तेरे दिल में समाई हूँ।। पहन कर चाँद की नथनी, सितारों से भरा आँचल नये जल की नई बूँदें, नये घुँघरू नई पायल नया झूमर नई टिकुली, नई बिंदिया नया काजल। पहन आई मैं हर गहना, कि तेरे साथ ही रहना लहर की चूड़ियाँ पहना, मैं पानी की कलाई हूँ। --कुँवर बेचैन  

ये दर्द बदनाम तो न होगा........

 

मुझे बता दे ए दोस्त मेरे ये दर्द बदनाम तो न होगा

तबीब मेरे कहीं तुम्हारी दवा से आराम तो न होगा।


कभी तो आओगे तुम यहाँ पर जहाँ मैं खोया हुआ मिलूँगा

सिवाय ख्वाबों के न हो कुछ भी ये मेरा अंजाम तो न होगा।


कभी तमन्नाएँ तुम न रखना वही मिलेगा जहाँ था छोड़ा 

हर एक परसों की कहने वाला अब ख्याल-ए-वहम तो न होगा। 


ग़ज़ल तुम्हारे लिए लिखी थी मगर तुम्हीं ने कभी पढ़ी न 

उसी ग़ज़ल की किताब जैसा मेरा भी पैगाम तो न होगा। 


गिला नहीं कोई जिंदगी से जो वक़्त गुज़रा किसी तरह से 

सभी को माफ़ी दी उसके गम में ये तेज गुमनाम तो न होगा। 


मुझे बता दे ए दोस्त मेरे ये दर्द बदनाम तो न होगा 

तबीब मेरे कहीं तुम्हारी दवा से आराम तो न होगा। 


                                                                                                       --मनीष महावर 

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