नदी बोली समन्दर से | Kunwar Bechain

नदी बोली समन्दर से, मैं तेरे पास आई हूँ। मुझे भी गा मेरे शायर, मैं तेरी ही रुबाई हूँ।। मुझे ऊँचाइयों का वो अकेलापन नहीं भाया लहर होते हुये भी तो मेरा मन न लहराया मुझे बाँधे रही ठंडे बरफ की रेशमी काया। बड़ी मुश्किल से बन निर्झर, उतर पाई मैं धरती पर छुपा कर रख मुझे सागर, पसीने की कमाई हूँ।। मुझे पत्थर कभी घाटियों के प्यार ने रोका कभी कलियों कभी फूलों भरे त्यौहार ने रोका मुझे कर्तव्य से ज़्यादा किसी अधिकार ने रोका। मगर मैं रुक नहीं पाई, मैं तेरे घर चली आई मैं धड़कन हूँ मैं अँगड़ाई, तेरे दिल में समाई हूँ।। पहन कर चाँद की नथनी, सितारों से भरा आँचल नये जल की नई बूँदें, नये घुँघरू नई पायल नया झूमर नई टिकुली, नई बिंदिया नया काजल। पहन आई मैं हर गहना, कि तेरे साथ ही रहना लहर की चूड़ियाँ पहना, मैं पानी की कलाई हूँ। --कुँवर बेचैन  

Krishna Janmashtami




नटखट जब तू निहारता है गगरी में, चन्द्रमा भी झट घट बीच बैठ जाता है
तेरी दृष्टि उठती है झाँकने को नभ में तो, घट से निकल शशि शून्य में समाता है
मैया बोली अपना कलंक मिटने को, तुझे चूमने को चोरी से मयंक ललचाता है
इसीलिए तेरे मुख चंद्र का चकोर बन, चोर चंद्र चारों चक्कर लगाता है



श्याम सखा की, मोर पखा की, गौर छटा श्रृंगार है राधा 
वृन्दावन में व्याकुल ब्रजराज की, वंशी की टेर पुकार है राधा 
पर्याय बनी जप की तप की, नहीं किंचित काम विकार है राधा 
मुक्ति को द्वार है, भक्ति की धार है, प्यार है प्यार है प्यार है राधा 

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