नदी बोली समन्दर से | Kunwar Bechain

नदी बोली समन्दर से, मैं तेरे पास आई हूँ। मुझे भी गा मेरे शायर, मैं तेरी ही रुबाई हूँ।। मुझे ऊँचाइयों का वो अकेलापन नहीं भाया लहर होते हुये भी तो मेरा मन न लहराया मुझे बाँधे रही ठंडे बरफ की रेशमी काया। बड़ी मुश्किल से बन निर्झर, उतर पाई मैं धरती पर छुपा कर रख मुझे सागर, पसीने की कमाई हूँ।। मुझे पत्थर कभी घाटियों के प्यार ने रोका कभी कलियों कभी फूलों भरे त्यौहार ने रोका मुझे कर्तव्य से ज़्यादा किसी अधिकार ने रोका। मगर मैं रुक नहीं पाई, मैं तेरे घर चली आई मैं धड़कन हूँ मैं अँगड़ाई, तेरे दिल में समाई हूँ।। पहन कर चाँद की नथनी, सितारों से भरा आँचल नये जल की नई बूँदें, नये घुँघरू नई पायल नया झूमर नई टिकुली, नई बिंदिया नया काजल। पहन आई मैं हर गहना, कि तेरे साथ ही रहना लहर की चूड़ियाँ पहना, मैं पानी की कलाई हूँ। --कुँवर बेचैन  

ग़ज़ल--"नए सिरे से...."


तुम्हारे हाथों से कोई दामन छुड़ा के जाये तो मुझसे कहना

कभी मोहब्बत में दिल तुम्हारा फरेब खाये तो मुझसे कहना


अगर वो दिल साफ़ करके हमसे गले मिलेंगे नए सिरे से

तो हम भी कायम करेंगे उनसे तमाम रिश्ते नए सिरे से


समझ के मिट्टी का एक खिलौना फिर आ गए दिल को तोड़ने तुम 

अभी तो जोड़े हैं हमने दिल के तमाम टुकड़े नए सिरे से 


हम बाद मुद्दत के इसलिए आज उनकी महफ़िल में जाके बैठे 

सुनेंगे उनसे मुहब्बतों के तमाम किस्से नए सिरे से 


किसी में हिम्मत नहीं है पूछे कि बागबान का है क्या इरादा 

बना रहा है क्यों वो हमारे चमन की नक़्शे नए सिरे से 




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