नदी बोली समन्दर से | Kunwar Bechain

नदी बोली समन्दर से, मैं तेरे पास आई हूँ। मुझे भी गा मेरे शायर, मैं तेरी ही रुबाई हूँ।। मुझे ऊँचाइयों का वो अकेलापन नहीं भाया लहर होते हुये भी तो मेरा मन न लहराया मुझे बाँधे रही ठंडे बरफ की रेशमी काया। बड़ी मुश्किल से बन निर्झर, उतर पाई मैं धरती पर छुपा कर रख मुझे सागर, पसीने की कमाई हूँ।। मुझे पत्थर कभी घाटियों के प्यार ने रोका कभी कलियों कभी फूलों भरे त्यौहार ने रोका मुझे कर्तव्य से ज़्यादा किसी अधिकार ने रोका। मगर मैं रुक नहीं पाई, मैं तेरे घर चली आई मैं धड़कन हूँ मैं अँगड़ाई, तेरे दिल में समाई हूँ।। पहन कर चाँद की नथनी, सितारों से भरा आँचल नये जल की नई बूँदें, नये घुँघरू नई पायल नया झूमर नई टिकुली, नई बिंदिया नया काजल। पहन आई मैं हर गहना, कि तेरे साथ ही रहना लहर की चूड़ियाँ पहना, मैं पानी की कलाई हूँ। --कुँवर बेचैन  

Teacher's Day


 भव सागर से पार उतरने निकला था संसार में

लेकिन नैय्या डूब रही है कष्टों के मंझधार में

कूल कहाँ प्रतिकूल, हिलोरें मार रहा ठहरा पानी

गूढ़ गति काया से निकसी स्वतः गति जब जानी।


तब दाता ने मुझको हिम्मत की परिभाषा बतलायी 

अन्धकार में छिपे मणिक की परछायी तब दिखलाई 

देख कथानक थर्राया मैं काँप उठा पछतावे में 

गुरु की महिमा जान पढ़ी तो रो बैठा सन्नाटे में। 


गुरु की दीक्षा ऐसी है जो न मिलती अख़बारों में 

वो शब्दों की दीपशिखा है अँधियारे गलियारों में 

वो जीवन का राजदूत है, सकल राष्ट्र निर्माता है 

न जाने इसके बदले में क्या कुछ वो पा जाता है 

नहीं दिया है उसको कुछ भी, शर्मसार  जाता हूँ 

इसीलिए मैं दुनिया को गुरु की महिमा बतलाता हूँ। 


कोमल हृदयी उस मानव ने हम सबको ही अपनाया है 

धर्म जाति का भेद भुलाकर सबको गले लगाया है 

 प्रेम,प्रतिज्ञा,धैर्य,मर्म का पाठ हमें बतलाया है 

त्याग,तपस्या, देशभक्ति मंचन भी सिखलाया है 

ऐसी मूरत पाकर मैं धन्य धन्य हो जाता हूँ ,

इसीलिए मैं दुनिया को गुरु की महिमा बतलाता हूँ। 


गुरु को पंक्ति में बाँध सकूँ, मेरी इतनी औकात कहाँ 

उस अमृत के सम्मुख मेरे विष की  बिसात कहाँ 

लेकिन उस पारस ने मुझको कंचन बना दिया 

अपने सान्निध्य में लेकर मुझको मानव बना दिया। 


                                                                                          --मनीष महावर 



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