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नदी बोली समन्दर से | Kunwar Bechain

नदी बोली समन्दर से, मैं तेरे पास आई हूँ। मुझे भी गा मेरे शायर, मैं तेरी ही रुबाई हूँ।। मुझे ऊँचाइयों का वो अकेलापन नहीं भाया लहर होते हुये भी तो मेरा मन न लहराया मुझे बाँधे रही ठंडे बरफ की रेशमी काया। बड़ी मुश्किल से बन निर्झर, उतर पाई मैं धरती पर छुपा कर रख मुझे सागर, पसीने की कमाई हूँ।। मुझे पत्थर कभी घाटियों के प्यार ने रोका कभी कलियों कभी फूलों भरे त्यौहार ने रोका मुझे कर्तव्य से ज़्यादा किसी अधिकार ने रोका। मगर मैं रुक नहीं पाई, मैं तेरे घर चली आई मैं धड़कन हूँ मैं अँगड़ाई, तेरे दिल में समाई हूँ।। पहन कर चाँद की नथनी, सितारों से भरा आँचल नये जल की नई बूँदें, नये घुँघरू नई पायल नया झूमर नई टिकुली, नई बिंदिया नया काजल। पहन आई मैं हर गहना, कि तेरे साथ ही रहना लहर की चूड़ियाँ पहना, मैं पानी की कलाई हूँ। --कुँवर बेचैन  

वो आए हैं ये ख्वाब है मालूम नहीं क्यूँ.......

वो आए हैं ये ख्वाब है मालूम नहीं क्यूँ  रंगीं शब-ए-महताब है मालूम नहीं क्यूँ दिल खुश भी है बेताब है मालूम नहीं क्यूँ  हर आरजू एक ख्वाब है मालूम नहीं क्यूँ  जिस आँख में खिलती थीं कभी ख्वाब की कलियाँ कब ये यूँ ही बेख्वाब है मालूम नहीं क्यूँ  वो देख रहे हैं मुझे चाहत की नज़र से  दिल और भी बेताब है मालूम नहीं क्यूँ।  वो भी तो नज़र आते हैं शरमाये हुए से  हर वक्त यही ख्वाब है मालूम नहीं क्यूँ  वो आए हैं ये ख्वाब है मालूम नहीं क्यूँ  रंगीन शब-ए-महताब है मालूम नहीं क्यूँ 

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