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Showing posts from June, 2020

नदी बोली समन्दर से | Kunwar Bechain

नदी बोली समन्दर से, मैं तेरे पास आई हूँ। मुझे भी गा मेरे शायर, मैं तेरी ही रुबाई हूँ।। मुझे ऊँचाइयों का वो अकेलापन नहीं भाया लहर होते हुये भी तो मेरा मन न लहराया मुझे बाँधे रही ठंडे बरफ की रेशमी काया। बड़ी मुश्किल से बन निर्झर, उतर पाई मैं धरती पर छुपा कर रख मुझे सागर, पसीने की कमाई हूँ।। मुझे पत्थर कभी घाटियों के प्यार ने रोका कभी कलियों कभी फूलों भरे त्यौहार ने रोका मुझे कर्तव्य से ज़्यादा किसी अधिकार ने रोका। मगर मैं रुक नहीं पाई, मैं तेरे घर चली आई मैं धड़कन हूँ मैं अँगड़ाई, तेरे दिल में समाई हूँ।। पहन कर चाँद की नथनी, सितारों से भरा आँचल नये जल की नई बूँदें, नये घुँघरू नई पायल नया झूमर नई टिकुली, नई बिंदिया नया काजल। पहन आई मैं हर गहना, कि तेरे साथ ही रहना लहर की चूड़ियाँ पहना, मैं पानी की कलाई हूँ। --कुँवर बेचैन  

Father's Day

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पिता के संस्कारों की बारहखड़ी से ज्यादा कुछ भी नहीं   उनकी मुस्कराहट की घडी दो घड़ी से ज्यादा कुछ भी नहीं   मैं कितना भी कमा लूँ मैं कुछ भी बन जाऊँ दुनिया में   मेरी कीमत उनकी पगड़ी से ज्यादा कुछ भी नहीं।   वो फटी किताबें टूटी कलम स्लेट पट्टियाँ याद आती हैं  साल भर रहता था जिनका इंतज़ार वो छुट्टियाँ याद आती हैं अब भी लड़खड़ा जाता हूँ चलते चलते कहीं किसी राह पे  मुझे भगवान से पहले पिता की वो उँगलियाँ याद आती हैं।  हमारे सब अच्छे बुरे काम उनके ध्यान में रहते थे हम घर पर नहीं उनकी दिलो-जान में रहते थे  मैं नए कपडे पहन सकूँ दिवाली पर  इसीलिए पिता फटी बनियान पहने रहते थे।   अरमानों से जोड़ी गुल्लक यूँ ही फोड़ देता था  खाते-खाते थाली में निवाला छोड़ देता था  फिर भी पिता थे जो ख़ुशी से मुस्कुराते थे   जब मैं घर लाते ही पल में खिलौना तोड़ देता था।  कभी लगता था पिता के फैसले कड़े हैं  पर सच  है कि उन्ही से हम पैरों पर खड़े होते हैं  कभी पिता बनेंगे तो शायद हम भी जान जायेंगे  बच्चे बच्चे होत...

राहत इंदौरी साहब के शेऱ

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रोज़ पत्थर की हिमायत में ग़ज़ल लिखते हैं रोज़ शीशों से कोई काम निकल पड़ता है मैंने अपनी खुश्क आँखों से लहू छलका दिया, इक समंदर कह रहा था मुझको पानी चाहिए। बहुत ग़ुरूर है दरिया को अपने होने पर जो मेरी प्यास से उलझे तो धज्जियाँ उड़ जाएँ नए किरदार आते जा रहे हैं मगर नाटक पुराना चल रहा है रोज़ तारों को नुमाइश में ख़लल पड़ता है चाँद पागल है अँधेरे में निकल पड़ता है मैं आख़िर कौन सा मौसम तुम्हारे नाम कर देता यहाँ हर एक मौसम को गुज़र जाने की जल्दी थी बीमार को मरज़ की दवा देनी चाहिए मैं पीना चाहता हूँ पिला देनी चाहिए बोतलें खोल कर तो पी बरसों आज दिल खोल कर भी पी जाए मैं ने अपनी ख़ुश्क आँखों से लहू छलका दिया इक समुंदर कह रहा था मुझ को पानी चाहिए शाख़ों से टूट जाएँ वो पत्ते नहीं हैं हम आँधी से कोई कह दे कि औक़ात में रहे

कोई दीवाना कहता है

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कोई दीवाना कहता है कोई दीवाना कहता है, कोई पागल समझता है ! मगर धरती की बेचैनी को बस बादल समझता है !! v मैं तुझसे दूर कैसा हूँ, तू मुझसे दूर कैसी है ! ये तेरा दिल समझता है या मेरा दिल समझता है !! मोहब्बत एक अहसासों की पावन सी कहानी है ! कभी कबिरा दीवाना था कभी मीरा दीवानी है !! यहाँ सब लोग कहते हैं, मेरी आंखों में आँसू हैं ! जो तू समझे तो मोती है, जो ना समझे तो पानी है !! समंदर पीर का अन्दर है, लेकिन रो नहीं सकता ! यह आँसू प्यार का मोती है, इसको खो नहीं सकता !! मेरी चाहत को दुल्हन तू बना लेना, मगर सुन ले ! जो मेरा हो नहीं पाया, वो तेरा हो नहीं सकता !! भ्रमर कोई कुमुदुनी पर मचल बैठा तो हंगामा! हमारे दिल में कोई ख्वाब पल बैठा तो हंगामा!! अभी तक डूब कर सुनते थे सब किस्सा मोहब्बत का! मैं किस्से को हकीक़त में बदल बैठा तो हंगामा!! कवि  - डॉ. कुमार विश्वास

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छुक छुक छुक छुक रेल चली है जीवन की || chhuk chhuk rail chali hai jeevan ki