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नदी बोली समन्दर से | Kunwar Bechain

नदी बोली समन्दर से, मैं तेरे पास आई हूँ। मुझे भी गा मेरे शायर, मैं तेरी ही रुबाई हूँ।। मुझे ऊँचाइयों का वो अकेलापन नहीं भाया लहर होते हुये भी तो मेरा मन न लहराया मुझे बाँधे रही ठंडे बरफ की रेशमी काया। बड़ी मुश्किल से बन निर्झर, उतर पाई मैं धरती पर छुपा कर रख मुझे सागर, पसीने की कमाई हूँ।। मुझे पत्थर कभी घाटियों के प्यार ने रोका कभी कलियों कभी फूलों भरे त्यौहार ने रोका मुझे कर्तव्य से ज़्यादा किसी अधिकार ने रोका। मगर मैं रुक नहीं पाई, मैं तेरे घर चली आई मैं धड़कन हूँ मैं अँगड़ाई, तेरे दिल में समाई हूँ।। पहन कर चाँद की नथनी, सितारों से भरा आँचल नये जल की नई बूँदें, नये घुँघरू नई पायल नया झूमर नई टिकुली, नई बिंदिया नया काजल। पहन आई मैं हर गहना, कि तेरे साथ ही रहना लहर की चूड़ियाँ पहना, मैं पानी की कलाई हूँ। --कुँवर बेचैन  

सत्ता की कुर्सी

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कल रात मेरे ख्वाब में आये थे राम जी मुझको थमा गए थे सवालात की पर्ची। पहला सवाल ये है कि नेता है क्या बला क्यूँ मुझको खींचता है चुनावों में ये भला ऐसे तो इसे मेरी कभी याद न आये बस पाँच साल मैं मुझे इक बार बुलाए क्या भक्त भी होते हैं कभी इतने मतलबी।  कल रात मेरे ख्वाब में आये थे ………… दूजा सवाल ये है कि इंसा का क्या हुआ इंसानियत का नामोनिशां ही नहीं रहा हर ओर सिर्फ पाप बुराई का राज है झूठों के सर दौलत शोहरत का ताज है खुदगर्जियों के नाम पे बदले जो धर्म भी।  कल रात मेरे ख्वाब में आये थे ………… तीजा सवाल ये है कि क्या चीज़ है कुर्सी जिसको भी देखो वो करे बस इसकी चाकरी कुर्सी वास्ते तो ये भाई को मार दें माई को छोड़ कर ये तो ताई को वार दें कुर्सी ही इनकी मात पिता और वही सखी।  कल रात मेरे ख्वाब में आये थे …………

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